059: Laxmi chauhan interview
Director: Sunil Kumar; Cinematographer: Sunil Kumar
Duration: 00:32:18; Aspect Ratio: 1.778:1; Hue: 112.569; Saturation: 0.071; Lightness: 0.417; Volume: 0.234; Cuts per Minute: 0.155; Words per Minute: 144.139
Summary: लक्ष्मी चौहान सार्थक नामक एक संगठन के सचिव हैं और कोरबा में रहते हैं, और पर्यावरण के मुद्दे पर काफी समय से काम कर रहे हैं। लक्ष्मी जी के अनुसार रमन सिंह सरकार बिना किसी प्लानिंग के एम.ओ.यू. पर दस्तखत करती जा रही है। यह रमन सिंह का विकास है जिसमें बड़े उद्योगपति और माफिया शामिल हैं। यह विकास जनता को ध्यान में रखकर किया ही नहीं गया है। एक तरफ सरकार बेहिसाब जंगलों को कटवा रही है तो दूसरी तरफ रमन सिंह टी.वी. पर पेड़ लगाओ पर्यावरण बचाओ का प्रचार कर रहे हैं। घने जंगलों में कोयले की खादानों को उद्योगपतियों को दिया जा रहा है। पर्यावरण कानून का कोई पालन नहीं किया जा रहा है। अतिरिक्त बिजली उत्पादन करने वाले राज्य में मेगापॉवर प्लांट लाए जा रहे हैं और उनके लिए हजारों एकड़ खेती वाली जमीन किसानों से छीन कर निजी कम्पनियों को सौप दिया जा रहा है।
TV_power plants
Laxmi chauhan is an environmentalist working with the organisation Sarthak. He lives in Korba, which has seven power plants within the city.
Korba
देखिये आज हम जिस तरह की जिन्दगी जी रहे हैं, उसमें पॉवर का क्या रोल है हम इससे इनकार नहीं कर सकते हैं. कोई भी पॉवर को अपनी जिन्दगी से अलग करके नहीं जी सकता है. यह हमारी जिन्दगी का महत्वपूर्ण हिस्सा हो गया है. उसके बिना किसी की भी जिन्दगी अधूरी हो जाएगी.
आज हमारी जो व्यवस्था है और उसमें जो तकनीकी हमारे पास है वो बिजली से चलने वाले हैं और उनका जिन्दगी में बहुत महत्वपूर्ण रोल है. लेकिन इसका एक दूसरा हिस्सा है जिसे कहा सकते हैं price of power. इस पॉवर के लिए क्या मूल्य चुकाने होंगे? और किस कीमत पर?
कोरबा में हैवी माइंस हैं. कोयला होने के कारण पॉवर सेक्टर्स हैं और शायद ही दुनिया की कोई ऐसी जगह होगी जहां 10 किमी के दायरे में 7 पॉवर प्लांट चल रहे होंगे. मैं आपको डिटेल में समझाता हूँ. 1 मेगावाट पॉवर पैदा करने के लिए लगभग 18 से 20 टन कोयले की खपत होती है.
उस हिसाब से हमारे यहाँ 2820 मेगावाट के पॉवर प्लांट इस समय चल रहे हैं. जिसमें एन.टी.पी.सी. स्टेट इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड, कुछ प्राईवेट सेक्टर के बाल्को, लैन्को जैसे प्लांट हैं. इन सबको मिलाकर करीव 6000 मेगावाट की क्षमता प्रति दिन है. अभी हम हाइडल पॉवर प्लांट छोड़ देते हैं.
इस हिसाब से हमारे यहाँ करीब 1,16,000 टन कोयले की खपत प्रतिदिन हैं. यदि हम पर्यावरण के जो मापदंड हैं उनके हिसाब से अच्छा कोयला जला रहे हैं तो उसमें ऐश कंटेंट 40 प्रतिशत होता है. इस हिसाब से हमारे यहाँ करीब-करीब 51 से 52 हजार टन प्रतिदिन ऐश बनता है. और यह मान कर चलिए कि दशमलव एक प्रतिशत भी हम उसका उपयोग नहीं कर सकते हैं. तो यह ऐश कहीं न कहीं जा कर यह डंप होता है. राखड़ के इस्तेमाल के लिए सरकार की तरफ से जो नोटिफिकेशन आया है वह व्यावहारिक नहीं है.
नोटिफिकेशन किस तरह का?
राखड़ के इस्तेमाल के लिए 1999 का नोटिफिकेशन है. सन 2000 में यह पास हुआ था. उसमें पॉवर सेक्टर के लिए टाईम बाउंड कैलेण्डर है. नोटिफिकेशन से पहले जो पहले से चल रहे पॉवर प्लांट हैं, उनके लिए चार कटेगरी बनाया गया है, अलग-अलग लोगों के लिए. चौथे कटेगरी में जो चल रहे प्लांट हैं, उनको पांचवें साल में पूरे ऐश का इस्तेमाल करना है. और जो नोटिफिकेशन आने के बाद के चल रहे प्लांट हैं उनके लिए अलग-अलग टाईम बाउंड हैं.
तो पॉवर प्लांट के ऐश डिस्पोजल या उसके इस्तेमाल के लिए जो टाईम बाउंड है वह संभव नहीं है, व्यावहारिक नहीं है. यह एक तरीके से ब्यूरोक्रेट्स द्वारा कंपनी पर नियंत्रण बनाए रखने के लिए है. जिनका व्यावहारिक होना संभव ही नहीं है. उदाहरण के लिए छत्तीसगढ़ में बाटलम पोल्यूजत्रू सीमेंट में ही राखड़ का इस्तेमाल किया जाता है, तो 80-20 के अनुपात रखा जाता है. तली का जो राखड़ होता है उसमें 20 प्रतिशत सीमेंट मिलाते हैं.
यदि हम उन दोनों का औसत निकालें तो कोरबा के ही राखड़ का सिर्फ 0.1 या 0.2 प्रतिशत इस्तेमाल हो पाएगा, रायपुर, रायगढ़ या बाकी जगह की तो बात ही छोड़ दीजिए. तो यह संभव ही नहीं है कि आप ईंट बनाकर, गड्ढे भर के या सीमेंट प्लांट में राखड़ मिलाकर आप उसका इस्तेमाल कर पाएं. आप यह मान कर चलिए कि उसको आपको डंप करना ही पडेगा और यह एक ऐसी समस्या है जो कभी ख़त्म नहीं होगी. जब तक पॉवर प्लांट चलेंगे तब तक पॉवर प्लांट तब तक राखड़ पैदा होगा और उस राखड़ को डंप करने के लिए आपको जमीन की जरूरत पड़ेगी.
यह एक ऐसी परिस्थिति है जो आने वाले समय में बहुत भयावह स्थिति पैदा करेगी. उदाहरण के तौर पर हमने आपको बताया कि कोरबा में ही प्रतिदिन करीब 52,000 टन राख पैदा हो रहा है. यदि सारे पॉवर प्लांट का औसत निकालें तो हर पांच-सात साल बाद पॉवर प्लांट को 500-600 एकड़ जमीन राखड़ डंप के लिए चाहिए. आने वाले पचास साल में यह स्थिति हो जाएगी कि कोरबा में चारों तरफ सिर्फ राखड़ डंप करने के लिए राखड़ डैम बन रहे होंगे.
तो सोचिए कोरबा में 6-7 पॉवर प्लांट के होने से यह स्थिति है तो उन जगहों का क्या होगा? उदाहरण के लिए जांजगीर चाम्पा जहां पर बिना किसी अध्ययन के, बिना किसी प्लानिंग के बत्तीस-बत्तीस एमओयू साइन कर लिए. क्या प्लान है सरकार के पास राखड़ डंप करने का. राखड़ के बारे में बहुत सारे अध्ययन हुए हैं. हमने आईटी खड़गपुर के कुछ स्टडी पेपर पढ़े हैं. जो के साइंस जर्नल में प्रकाशित हुए हैं. ग्रेट ट्रिब्यूनल में अमेरिका के कुछ रिसर्च को फालो करके एन.टी.पी.सी. के केस में निर्णय दिया गया था, उस पर उन्होंने कोट किया है कि जो राखड़ का थर्मल ग्रेडेशन है वह न्यूक्लियर गैस के थर्माग्रेडेयर से ज्यादा खरनाक है तो आप समझ सकते हैं कि लोगों के स्वास्थ्य पर क्या प्रभाव पड़ता होगा.
जिस तरह से हमारे प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने मापदंड बना रखे हैं, उन मापदंडों को लागू करने की जो नोडल एजेंसियां हैं वह इतनी सक्षम ही नहीं हैं या कहीं न कहीं वह किसी प्रेशर में काम करती हैं, कि वह पॉवर प्लांट पर एक दबाव बना सकें. कॉर्पोरेट लाबी बहुत ताकतवर होती है और पोलिटिकल प्रेशर इतना ज्यादा होता है कि यह जो नोडल एजेंसियां हैं, जैसे एनवायरनमेंट कंजर्वेशन बोर्ड, यह चाह कर भी कार्यवाही नहीं कर पाती है.
बिजली के कुछ ऐसे प्लांट भी हैं जो राष्ट्रीय मानकों को लागू ही नहीं करते हैं. उनका डिजाइन वैल्यू 300 माइक्रो मिलीग्राम है. और आज तो 50 को छोड़ कर 10 तक चला गया है. आज नेशनल स्केल बदल चुके हैं. हम उन प्लाटों ही नहीं कर सकते हैं कि वह उन मानकों को लागू करेंगे बल्कि वह तो प्रदूषण करेगा ही. नेशनल इन्ट्रेस्ट अभी है और लोकल इन्ट्रेस्ट भी है, सारी चीजों को देखकर राखड़ एक ऐसी समस्या है जो आने वाले जितने भी सेक्टर हैं उसमें सबसे ज्यादा खरनाक थर्मल पॉवर प्लांट हैं.
इनसे निकलने वाली राख बहुत बड़ी समस्या है और वह समस्या सिर्फ जमीन की नहीं है बल्कि यह स्वास्थय के लिए भी नुकसानदेह है क्योंकि 50 माइक्रो मिलीग्राम के कण है वह आंख से दिखते नहीं है और वह हवा में रहते हैं. सांस के जरिये वह हमारे शरीर में जाते हैं तो इससे बहुत सारी बीमारियाँ होती हैं. आप अगर एक अध्ययन करें तो पाएंगे कि अस्थमा के मरीज ज्यादा मिलेंगे. पैदा होने के वाले बच्चों को अस्थमा की बीमारी हो जाती हैं. तो यह चीजें हैं जो साथ-साथ लगी हुई है.
इसके पीछे का कोई प्लान ही नहीं है. बेसिकली जब सरकार पॉवर सेक्टर के लिए पॉवर प्लांट लाने का निर्णय लेती है तो पहले प्लानिंग करे कि पॉवर प्लांट कहाँ लगेगा? उसका विंड डायरेक्शन किधर है? आज कोरबा के प्लांटों की यही स्थिति है कि एन.टी.पी.सी., बाल्को की सारी राख पूरे शहर में आती है. हवा का डायरेक्शन पूरे नौ महीन उत्तर से पूर्व-पश्चिम होता है जो हमारे लिए बहुत ही दिक्कत की बात है. इसको लेकर कोई प्लानिंग ही नहीं थी. क्या है कि स्टेट मशीनरी खुद ही नियम तोड़ती है तो बाकी से क्या उम्मीद करेंगे?
देखिये राख प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों तरह से प्रभावित करता है. जो प्रत्यक्ष प्रभावित करता है वह दिखता है, जैसे हमारी आँखों में जलन होती है, स्किन की कई बीमारियाँ होती हैं और आपने देखा होगा कि यह बहुत ज्यादा पानी के श्रोतों को भी प्रभावित करता है. गाँव के तालाब या बहुत सारे ऐसे क्षेत्र जहां पर लोग नालों के पानी का इस्तेमाल करते हैं जो कि बहुत अधिक प्रदूषित हैं. कंपनी के द्वारा राख को सीधे उसी में छोड़ दिया जाता है.
घरेलू महिलाएं इस तरह से प्रभावित होती हैं कि यदि हवा चली तो उनका पूरा घर राख से पट जाता है. आप दो घंटे के लिए अपनी गाड़ी छोड़ दीजिए, आप देखेंगे कि उस पर धूल की एक परत जमीं है. यह सब तो साफ़ तौर पर दिखता है लेकिन जो अप्रत्यक्ष वाला हिस्सा है, जो दरअसल लम्बे समय बाद शारीरिक बीमारी के रूप में नुकसान पहुंचाने वाले होते हैं. वह बहुत खतरनाक होते हैं.
उदाहरण के लिए यदि आपके पास काले रंग की कार है वह रात भर खड़ी रहती है तो सुबह क्या परिवर्तन देखने को मिलता है?
उस पर धूल की एक लेयर जमा होती है. कोरबा की तासीर है कि उसमें सफ़ेद रंग की एक परत जमा होती है. रोज हम कर को निकाल कर धोते हैं और शाम तक ऑफिस के सामने खड़ा रहने पर देखते हैं कि एक लेयर फिर जमा हो गया है. अब कोरबा के जो लोग हैं वह अपनी दिनचर्या में शामिल कर लिए हैं. लेकिन क्या है कि इसका बहुत प्रभाव है. अब आस-पास जो इंडस्ट्रियल एरिया है उसके चारों तरफ जो गाँव हैं यहीं से ही खाने की चीजों की आपूर्ति होती है.
उदाहरण के लिए सब्जियां और साग-भाजी. आप देखेंगे कि कोरबा के जितने भी पेड़ हैं उनके पत्तों पर राख की एक मोटी परत जमीन रहती है और जो सब्जी, फल पैदा करते हैं, उनमें भी यह रहता है और वह कहीं न कहीं इसमें इन्वाल्व हो जाता है. जिसका कुछ न कुछ हिस्सा हमारे शरीर में जाता है. जब आईआईटी, रुढ़की जैसे प्रतिष्ठित संस्थान यह बोल रहे हैं कि इसमें रेडियो एक्टिव है. यह वैज्ञानिक तौर पर सिद्ध हो चुका है कि उड़ने वाली राख में रेडियो एक्टिव मेटल्स हैं जो हमारे शरीर में भी जाते होंगे तो सोचिये कि यह कितना नेकासानदेह होते होंगे?
और भी बहुत सारे तरीके से वह हमारे शरीर में जा रहे हैं, पानी के जरिये, सांस के जरिये, सब्जियों के जरिए तो चारों तरफ से इस राख से नुकसान हो रहा है. एक तरफ पूरा पर्यावरण प्रदूषित हो चुका है और आने वाले समय में जो राख डंप करने के लिए जो हमारी जमीन बर्बाद होगी वह अलग. यह प्लांट चलते रहेंगे और हर साल 5-10 एकड़ जमीन इसमें लगती जाएगी तो यह कई तरह से हमें नुकसान पहुंचा रहा है. यह एक अभिशाप है. जिस क्षेत्र में भी पॉवर प्लांट लगेंगे, उस क्षेत्र के लिए उड़ने वाली राख अभिशाप बनेगा.
यह किस चीज के आंकड़े है?
यह कोरबा में चलने वाले प्लांटों में कितना कोयला लगता है और कितनी राख बनती है, उसके आंकड़े है.
कोरबा वन क्षेत्र में आता है और यहाँ के आदिवासी इस वन से मिलने वाली उपज पर काफी निर्भर रहते है. यह वन की उपज को किस तरह से प्रभावित करता होगा?
मैं आपको बता दूं कि इस शहर का नाम कोरबा जनजाति के नाम से पडा है. मैं सोच रहा हूँ कि कोरबा के लोग सांस ले पा रहे हैं तो इसलिए क्योंकि शहर से लगा हुआ घना जंगल है वरना पॉवर प्लांट के कारण कोरबा शहर की जो स्थिति है उसमें सांस लेना भी मुश्किल होता. उष्ण कटिबन्धीय वन अनुसन्धान संस्थान, जबलपुर से दो वैज्ञानिक आए थे, जो फॉरेस्ट के ऑफिसर थे, उन्होंने वन औषधि को लेकर कोरबा के फॉरेस्ट अधिकारियों की ट्रेनिंग ली थी। उस दौरान उपस्थित कोरबा के वन वनाधिकारियों ने बताया था कि जिस क्षेत्र में एक पेड़ से आंवले की उपज 60 किलो थी अब वह घट कर 6 किलो रह गई है. कहीं न कहीं यह प्रदूषण के कारण है जिससे वन की उत्पादन क्षमता प्रभावित हो रही है।
60 किलो से 6 किलो उत्पादन का यह आंकणा एक पेड़ का है?
हां. उष्ण कटिबन्धीय वन अनुसन्धान संस्थान, जबलपुर के इन वैज्ञानिकों ने यहां की विशेष परिस्थिति को देखते हुए कुछ खास किस्म की प्रजाति के पौधों को लगाने का सुझाव भी दिया था लेकिन इंडस्ट्री के सी.एस.आर. का काम तो सिर्फ फोटोग्राफी तक ही सीमित होती है। शायद इसीलिए ही वन अधिकार अधिनियम को लाया गया है ताकि वन पर आधारित जनजातियों को सुरक्षित किया जा सके।
लकिन अभी देखने में यह आ रहा है कि वर्तमान समय में जिन क्षेत्रों में वन अधिकार अधिकार अधियम पत्र बांटे गए हैं उन्हीं क्षेत्रों में मुख्यतः खादाने लाई जा रही हैं। जिससे इस कानून का कोई औचित्य नहीं रह जा रहा है। और जहां जंगल होगा वहां कोयला होगा तो वह क्षेत्र तो अब बचेंगे ही नहीं। कोरबा जिला देश के सबसे धनी साल के जंगलों में से एक है जिसमें कि 7 से 8 कोयले की खादानों को मंजूर किया गया है। कटघोरा तहसील के इस साल के जंगलों के बारे में पर्यावरण मंत्रालय भी जानता है। उसके बावजूद भी उस क्षेत्र में कोयला ब्लॉक की प्रोसीडिंग चल रही है। यह बहुत गम्भीर स्थिति है।
यहां पर जंगलों के कई प्रकार हैं आप उस पर काम कर रहे हैं तो आपको उसके बारे में ज्यादा मालूम होगा, तो पहले तो इसके बारे में चाहूंगा और दूसरा इन क्षेत्रों को लेकर किस तरह का प्रोसेस पॉवर प्लांट कम्पनियां अपनाती है? जैसे जनसुनवाई होनी चाहिए लेकिन होती नहीं है, अभी मैं कोड़ियाघाट गया था तो वहां पर मुझे कुछ इसी तरह का अनुभव हुआ। आपके पास इस तरह की काफी जानकारी है तो मैं इसके बारे में जानना चाहूंगा?
देखिए मुख्यतः जितने जंगल हैं उनमें रेवेन्यु फॉरेस्ट या अन्य फॉरेस्ट का प्रतिशत बहुत कम है। कोरबा में जितने भी प्रस्तावित कोल माइंस हैं, चाहे वह छत्तीसगढ़ कैपेटिव माइंस हो या एस.जी.एस. या मदनपुर नार्थ साउथ, जितने भी हैं वह मुख्यतः प्रोटेक्टिव फॉरेस्ट एरिया में आते हैं। वैसे यहां पर रिजर्व फॉरेस्ट एरिया कम है लेकिन प्रोटेक्ट फॉरेस्ट एरिया काफी है। यहां के जंगलों में पेड़ों का औसत 400 पेड़ प्रति हेक्टेयर हैं जिनको कि बहुत ही अच्छा माना जाता है। इस बात को अपने लेटर्स में जय राम नरेश ने भी स्वीकार किया है। अपने लेटर्स में यह स्वीकार किया है।
और यह देश के सबसे चुनिन्दा बचे हुए साल के जंगलों में से एक हैं। सामान्यतः सौ-सौ, दो-दो सौ वर्ष पुराने साल पेड़ है वहां। सतरेगा रेंज में तो एक ऐसा साल पेड़ है जिसकी उम्र 1400 वर्ष है। तो इतने धनी जंगलों में खादानों को लाने के बारे में सोचा जा रहा है।
प्राईवेट सेक्टर की जो माईनिंग कम्पनियां हैं इनको कोल ब्लॉक कोल मंत्रालय से एलॉट होता है, उसके बाद पर्यावरण स्वीकृति प्राप्त करने के लिए जनसुनवाई की जाती है। कोरबा फिफ्थ शिड्यूल एरिया है इसलिए ग्राम पंचायत की सहमति भी अनिवार्य होती है। लेकिन इसमें ग्राम सभा की प्रोसीडिंग ही गलत होती है।
अभी हमने कल ही कलक्टर को एक निवेदन दिया है कि जिसमें यह मांग की है कि जितनी भी ग्राम सभाएं हैं चाहे वह जमीन अधिग्रहण से सम्बन्धित हो या वन अधिकार अधिनियम के तहत जो एन.ओ.सी. क्लियरेंस के लिए हों इन सभी की अनिवार्य रूप से विडियोग्राफी कराई जानी चाहिए।
इसमें होता क्या है कि ग्राम सभा में लोग आए नहीं या 10 लोग आए और प्रोसीडिंग पूरी हो गई, बाद में कोरम पूरा करने के लिए धीरे-धीरे दूसरी चीजों में दस्तखत करा कर उसको पूरा कर देते हैं। तो यह सारी चीजें हमारी स्टडी में आ रही थीं। हमने कई जगह देखा कि ग्राम सभा की अध्यक्षता तहसीलदार कर रहा है कहीं एस.डी.एम. कर रहा है या सरपंच से करा रहे हैं। सरपंच और सचिव इन दोनों को ही कहीं न कहीं कम्पनी वाले प्रलोभन देकर उनको अपने पक्ष में कर लेते हैं। हमने इन सबका काफी विरोध किया है।
जबकि शिड्यूल एरिया में साफ लिखा हुआ है अनुसूचित क्षेत्रों में ग्राम सभा की अध्यक्षता गांव वालों के द्वारा चुना हुआ आदिवासी करेगा। और उसमें कोरबा में एक तिहाई प्रोसीडिंग है। जबकि वन अधिकार अधिनियम में ग्राम सभा का कोरम पूरा होने की स्थिति 50 प्रतिशत रखी गई है। लेकिन यहां यह स्थिति है कि 10-5 लोग मिलकर ग्राम सभा कर ले रहे हैं। आज खुद तहसीलदार बैठा हुआ है ग्राम सभा करा रहा है और 10 लोगों में ग्राम सभा पूरी हो जाती है। यह सब कहीं न कहीं प्रशासन और कम्पनी की मिलीभगत से होता है।
हमने अभी-अभी राठीवड़ी में असहति जताई है, लैंको में असहमति जताई है, एच.सी.सी.एल. में जमीन अधिग्रहण के प्रोसेस में बोला कि इसको खारिज किया जाए। एच.सी.सी.एल कहता है कि हम पर पेशा एक्ट लागू ही नहीं होगा।
अभी मैं कोड़ियाघाट गया हुआ था वहां पता चला कि कोड़ियाघाट के गांव वालों ने बिजली मांगी थी जिसके लिए गांव में बिजली के खम्भे गड़ने थे जिसे वन विभाग वालों ने यह कहाँ कर मना कर दिया कि इससे पेड़ कटेंगे। तो एक तरफ तो वह बिजली के खम्भे गाड़ने से मना करते हैं और दूसरी तरफ उसी गांव की 1600 एकड़ जमीन एन.टी.पी.सी को दी जा रही है?
यह बहुत दुविधा है, खास कर के वन मंत्रालय को इस तरह चीजों पर कुछ प्रस्ताव लेने चाहिए। आपने देखा होगा कि कोरबा जिले के 85 गांव हैं जहां अभी तक बिजली नहीं पहुंची है। उन्हें सोलर से जोड़ने की कोशिश की गई है कुछ गांव में लगाए भी गए हैं लेकिन वह बहुत करगर नहीं है। देश के आधे से ज्यादा राज्यों को हम बिजली देते हैं और हमारे ही जिले के 87 गांव में बिजली ही नहीं है।
आप देखेंगे कि इसमें किस तरह गैप है, एक तरफ जब पॉवर ट्रांसमिशन के लिए पॉवर ग्रिड की लाईन बिछती है और उसके लिए जो इतने बड़े-बड़े खम्भे गाड़े जाते हैं तो उसके लिए उन्हें फॉरेस्ट क्लियरेंस की जरूरत नहीं पड़ती लेकिन डिस्ट्रीब्यूशन के लिए जब इतने छोटे-छोटे खम्भे गड़ते हैं तो उसके लिए फॉरेस्ट क्लियरेंस की जरूरत पड़ती है? तो यह गैप है इसको खत्म करना है।
एक तरफ तो वे पॉवर प्लांट से 11,000 के.वी. की लाईन लेकर जाते हैं तब उनको फॉरेस्ट क्लियरेंस की जरूरत नहीं पड़ती है और 440 या 270 वोल्ट की लाईन के लिए, जिसमें मात्र एक-एक तार जाना है, उसके लिए फॉरेस्ट क्लियरेंस की जरूरत पड़ती है? यह स्थिति है।
अभी छत्तीसगढ़ में बहुत सारे मेगा पॉवर प्लांट आ रहे हैं, तो इसके पीछे की क्या राजनीति है?
इस सरकार का कोई लक्ष्य नहीं है और न ही कोई मिशन है। इन्होंने बस आंख बन्द करके एम.ओ.यू. साइन किए हैं जबकि पहले यह स्टडी कराना चाहिए कि इसका क्या प्रभाव पड़ेगा या हमारी कितनी जरूरत है? ऐसा नहीं है कि साउथ की कम्पनी, जो हमारे यहां पर आकर पॉवर प्लांट लगा रही है, को साउथ में पानी या कोयला नहीं मिलेगा, दरासल वहां पर जमीन नहीं मिलेगी। कम्पनी को यह मालूम है कि वहां इतनी आसानी से जमीन नहीं मिलेगी।
छत्तीसगढ़ धान का कटोरा कहलाता है जिसका आधार जांजगीर चम्पा की खेतिहर जमीन है। अब अब वहीं के डभरा ब्लॉक में 7 पॉवर प्लांट लगाए जा रहे हैं। आपने सोचा कि राखड़ को कहां डम्प किया जाएगा? अभी तो 100 एकड़ में प्लांट बना और उसमें आपने डाल दिया, आने वाले सालों में कहां डम्प होगा? हर साल उनको 100 एकड राख डम्प करने के लिए लगेगा। आने वाले समय में जैसे कोरबा की स्थिति है वैसे ही बुरी स्थिति जंजगीर चम्पा की भी होगी।
अगर आपको पॉवर प्लांट लगाना था तो रायपुर और बिलासपुर के बीच में खाली पड़ी बंजर जमीन पर लगाते। इसीलिए किसी चीज के लिए विजन चाहिए, प्लानिंग चाहिए कि हम क्या कर रहे हैं? आपने आंख बन्द करके कोरबा व रायगढ़ जिले में स्पंज आयरन फैक्ट्रियों को परमीशन दे दिया। आज देखिए कितनी बदतर स्थिति है।
क्या यह सकार का भोलापन कहें या बहुत ही.....?
नहीं, इसे भोलापन नहीं कहेंगे, बल्कि सरकार के पास एक निश्चित पोलिसी होनी चाहिए कि पॉवर प्लांट कहां लगाने चाहिए हैं, कहां पर स्पंज आयरन लगाना है। जहां पर मिनरल्स होंगे वहीं माइनिंग होगी यह तो मजबूरी है लेकिन हम माइनिंग पर बार-बार यही कह रहे हैं कि ग्रीन बेल्ट को छोड़ कर पहले ब्राउन बेल्ट में जो कोयला है उसकी खुदाई की जानी चाहिए।
हमारी स्टडी के अनुसार आज तारीख में पूरे भारत की कोयले जो जरूरत है अगर 600 मिलियन टन प्रति वर्ष भी कोयला निकालते हैं वह भी 2045 तक, तो 2045 तक ब्राउन बेल्ट से ही कोयला निकाला जा सकता है, उन्हें ग्रीन बेल्ट को छेड़ने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। यदि 1,000 मिलियन टन कोयला प्रति वर्ष भी निकाला जाए तो भी जरूरत नहीं रहेगी।
ग्रीन बेल्ट में 2, 4, 5 या ज्यादा से ज्यादा 10 प्रतिशत ही कोयला होगा उससे ज्यादा कोयला है ही नहीं। तो इतने धनी जंगल को क्यों नुकसान पहुंचाया जा रहा है? और कोल ब्लॉक तो एक ही बार रिवेन्यु देता है जबकि वे जंगल पिछले 500 साल से रिवेन्यु दे रहे हैं। तेंदूपत्ता में, साल में, आंवले में इतने सारे वन उपज हैं जिससे लगातार सरकार को रिवेन्यु मिल रहा है। और तेंदूपत्ता तो आज की तारीख में सोना है।
तो वो जंगल जो आने वाले हजार सालों तक रिवेन्यु देंगे उनको 25 साल के रिवेन्यु के लिए क्यों बर्बाद किया जा रहा है?
रमन सिंह के अनुसार यह छत्तीसगढ़ का विकास है, आपके अनुसार?
यह मुख्यतः रमन सिंह का विकास है। हमारी समझ में नहीं आ रह है कि छत्तीसगढ़ का विकास कहां हो रहा है? हमें बताइए कि पिछले 10 साल में छत्तीसगढ़ में विकास के नाम पर आपने क्या देखा है? आई.आई.टी इसलिए आ गया है क्योंकि इसे एन.टी.पी.सी. ने दिया है, मेडिकल इसलिए आ गया क्योंकि इसे एच.सी.सी.एल. ने दिया है, राज्य की अपनी क्या उपलब्धि है?
जो राज्य सरकार साल में 10 परीक्षा सही से नहीं करा सकती है उससे क्या उम्मीद की जा सकती है? यही सब कार्यशैली है राज्य सरकार की।
यह कॉरपोरेट सेक्टर बहुत तकतवर हैं। आज की तारीख में यह जो प्रेशर ग्रुप हैं सी.आई.आई., फिक्की बहुत तकतवर हैं। जो भी पॉलिसी बनती है उन पर इनका हस्तक्षेप ज्यादा होता है। इनके हिसाब से ही यह पॉलिसी तय की जाती हैं।
देखिए, इंडस्ट्री की अपनी बहुत सारी मजबूरियां हो सकती हैं हम उससे इंकार नहीं कर सकते हैं। अब जिस विकास की बात करते हैं कि इंडस्ट्री के आने से रोजगार बढ़ेगा, कहां से रोजगार बढ़ेगा? जिस 500 एकड़ में 5,000 परिवार पलता था इंडस्ट्री के आने से उसमें 50 लोगों को भी नौकरी नहीं मिल पाती है। आज की तारीख में जितने भी पॉवर प्लांट हैं या खदानें हैं यह रोजगार देने के नाम पर सबसे ज्यादा लोगों को छलती हैं। क्योंकि जितने भी कम्पनियां या पॉवर प्लांट हैं यह अपने सारे काम आउटसोर्सिंग से कराती हैं।
यह स्थायी कर्मचारी रखने के बजाए भूविस्थापितों को ठेकेदारी पर रखते हैं। यदि ग्रामीण इलाकों की शिक्षा का औसत देखें तो क्या है? यदि कोई बहुत पढ़ा-लिखा होगा तो ग्रेजुएट होगा। आप एक आर्ट ग्रेजुएट को पॉवर प्लांट में कहां देखते हैं? एक साइंस ग्रेजुएट को पॉवर प्लांट में टेक्निकल विंग्स में कहां देखते हैं? और आज की एडवांस तकनीक में कितने मैन पॉवर की जरूरत होती है? यदि 500 मे.वॉ. का पॉवर प्लांट है तो 500 लोगों की भी जरूरत नहीं होती है।
उन 500 लोगों में एक्जीक्युटिव, टेक्निकल लोग और मजदूर भी होंगे और उनके एक्जिक्युटिव और टेक्निकल लोग सब बाहर से आते हैं तो क्या गांव वालों को सिर्फ ड्राईवर पर रखा जाएगा, चपरासी रखा जाएगा या मजदूर होंगे? और यह काम वह आउटसोर्सिंग से कराते हैं तो रोजगार कहां पैदा हुआ? जिनकी पांच पीढ़ी उस जमीन से खा रही थी कम्पनी ने उनको अपनी जमीन पर नौकर बना दिया।
और नौकरी तो एक ही पीढ़ी को मिलेगी, आने वाली पीढ़ी का क्या होगा? जब उसके पास खेत था तो आने वाली पीढ़ी भी उस खेत से कमाती- खाती थी। तो सरकार ने तो रोजगार पैदा करने के बजाय बेरोजगारी ही बढ़ाई है न। जहां पर पूरा गांव उस जमीन से जुड़ता था अब सिर्फ 50 लोगों को नौकरी दे दी गई है।
अब पॉवर प्लांट को मुख्यतः टेक्निकल लोग इंजीनियर्स या मैनेजमेंट के लोग ही चालाएंगे, वो गांव से आते नहीं हैं बल्कि जो स्थानीय होगा वो मजदूर होगा जो आउटसोर्सिंग माध्यम से ठेकेदार के जरिए सप्लाई होगा या सेक्योरिटी फोर्स बनकर बाहर खड़ा होगा जिसका कि कोई भरोसा नहीं कि कब वह बाहर निकाल दिया जाए। जिसका सबसे बड़ा उदाहरण लैंको, वन्दना है। दीपावली के एक दिन पहले 90 लोगों को वन्दना वाले ने बाहर कर दिया। उनका सामान तक नहीं दिया।
अभी पूरे गांव वाले कलक्टर के पास आ जायं फिर भी कलेक्टर के कान में जूं तक नहीं रेंगेगा। और यदि इंडस्ट्री एक फोन कर दे तो पूरी फोर्स वहां जाकर खड़ी हो जाएगी। ऐसा लगता है कि पूरी व्यवस्था, प्रशासक सब इन्हीं के लिए हैं।
क्या रोजगार को लेकर कुछ आंकणा आपके पास है? कि एक मेगावॉट पर कितना रोजगार मिल रहा है?
नहीं, इस तरह का कोई आंकणा तो मेरे पास नहीं है। जब कम्पनियां अपनी असेसमेंट रिपोर्ट बनाती हैं तो उसमें वह अपनी मैन पॉवर भी बताती है लेकिन वह ठीक-ठीक नहीं बताते हैं।
यह कम ज्यादा होता रहता है?
देखिए वह तो अपनी जरूरत के आधार पर तय करते हैं। नियम की स्थिति कुछ और है और जमीनी स्तर पर कुछ और होता है। सबसे बुरी स्थिति लेबर लॉ को लागू करने की होती है। किसी भी इंडस्ट्रियल सेक्टर में अगर सबसे ज्यादा वॉयलेशन होता है तो वह लेबर लॉ का होता है। इसमें कोई दो राय नहीं है। यह हो सकता है कि किसी और कानून का पालन हो जाएगा लेकिन लेबर लॉ की स्थिति बहुत ही बदतर है।
यह कहना कि पॉवर या इंडस्ट्री आ जाएगी तो रोजगार आ जाएगा, बेकार की बाते हैं, कागजी बाते हैं, सुनने में अच्छा लगता है। जमीनी सच्चाई इससे बहुत अलग है।
इन्हीं फैक्ट्रियों को लेकर या छत्तीसगढ़ राज्य में निवेश को लेकर अभी राज्योत्सव हुआ है जिस पर कि काफी खर्च हुआ है तो इस पर आप क्या कहना चाहेंगे?
देखिए, अगर छत्तीसगढ़ में इंडस्ट्री या खादानों को छोड़कर दूसरे सेक्टर में इनवेस्टमेंट होते हैं तो यह ज्यादा बेहतर होगा। छत्तीसगढ़ के 44 प्रतिशत भूभाग में जंगल है जिसमें कि बहुत रिच मेडिसिन पाए जाते हैं, विशेषकर कोरबा जिला इस मामले में तो बहुत ही रिच है। तो यदि इस सेक्टर में कोई कम्पनी इंवेस्ट्मेंट करती है और ऑरगेनाइज्ड ढंग से काम किया जाता है तो यहां के लोगों के लिए यह बेहद फायदेमन्द होगा।
सही मायने में यदि लोगों को जोड़कर कोऑपरेटिव बना कर काम किया जाय तो यह लोगों के लिए काफी फायदेमन्द होगा। जब कोऑपरेटिव बनाकर एशिया का सबसे बड़ा प्लांट बनाया जा सकता है तो आप क्यों नहीं कर सकते हैं। हिमांचल में वहां की राज्य सरकार ने हर्बल मेडिसिन को लेकर काफी अच्छा काम किया था। तो यह आपकी इच्छाशक्ति पर निर्भर करता है।
आप एग्रीकल्चर सेक्टर में इंवेस्टमेंट कराईए। पूरे जशपुर एरिया देखिए टमाटर की क्या स्थिति है। वहां प्रोसीडिंग युनिट डालिए। तो ऐसे सेक्टर में काम कीजिए जहां सही मायने में लोगों को रोजगार मिले।
उनके रोजगार को बढ़ाने के लिए कुछ जोड़कर इंडस्ट्री लगाते तो बेहतर होता, कम्पनियों को यहां के सिर्फ मिनरल्स का शोषण करने के लिए बुला रहे हैं तो यह ठीक नहीं है। उदाहरण के तौर पर- एस्सार वाला यहां प्लांट नहीं लगाएगा पाईप से आरनओर ले जाएगा, एन.एम.डी.सी वाला यहां से आइरनओर ले जाकर बाहर बेचेगा, बाक्साइट यहां से बाहर जाएगी, तो कैसे विकास होगा? हम सिर्फ रॉयल्टी लेने के लिए बैठे हैं? रॉयल्टी कितना है?
एच.सी.सी.एल. क्या कर रही है? कोयला निकालकर बाहर बेचती है। इससे भारतीय सरकार को कितनी रॉयल्टी मिल जाती है? मैं सोचता हूं कि कोरबा के पॉवर से, खादानों से, एमुला प्लांट से प्रति वर्ष जो रेवेन्यू पैदा होता उसको यदि कोरबा के विकास में लगा दिया जाए तो 5 साल में यह सिंगापुर बन जाएगा। इतना रेवेन्यू पैदा होता है।
लेकिन स्थिति यह है कि यदि कोई दिल का मरीज आ जाए तो उसको बचाने के लिए बिलासपुर भागना पड़ेगा। एक अच्छा अस्पताल, जिसमें कि सभी तरह की सुविधा हो, तक नहीं है कि हम किसी को बचा सकें। यह विकास है।
एक उदाहरण बताता हूं, पिछले 10 साल में पूरे राज्य में पूरे मावोवादी आन्दोलन के दौरान जितनी सिविल कैजुअलिटी नहीं हुई हैं उससे ज्यादा सिर्फ कोरबा में लोग रोड एक्सीडेंट में मारे गए हैं। यह इंडस्ट्रियल डेवेलपमेंट की देन है।
इसका कारण यह है कि सरकार ने इंफ्रास्ट्रक्चर का विकास नहीं किया है। सरकार माइनिंग बढ़ा रही है, गाड़ियां बढ़ रही हैं लेकिन इंफ्रास्ट्रक्चर नहीं डेवेलप किया जा रहा है। मैने एक औसत निकाला था कि पिछले 6-7 साल में 967 लोग मरे थे। इतने लोग तो पूरे प्रदेश में मावोवादी आन्दोलन में नहीं मरे हैं। लेकिन किसी के कान में जूं तक नहीं रेंगती। यह इतना बड़ा विषय है लेकिन इस पर कोई चर्चा करने को तैयार ही नहीं है।
और जो हमने 967 लोगों का औसत निकाला तो 60 प्रतिशत लोग अंडर 45 थे। आज की तारीख में यदि एक्सीडेंट में कोई गाय, बकरी मर जाती है तो ड्राइवर डरता है कि पैसा देना पड़ेगा, आदमी मरता है तो कुछ नहीं। जल्दी ही जमानत हो जाती है और गाड़ी भी छूट जाती है। तो राज्य की क्या पॉलिसी है? जब आप इतनी हैवी माइनिंग और औद्योगीकरण करा रहे हैं उस हिसाब से राज्य के ढांचे का विकास करना चाहिए। सिर्फ शोषण करने, रेवेन्यू या रायल्टी लेने के लिए विकास किया जा रहा है। बिलासपुर कोरबा एक मुख्य सड़क है, देख लीजिए लीजिए रोड की क्या हालत है? 10 साल में यह सरकार एक सड़क तक नहीं बनवा पाई है।
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