008: Uchpinda interview with Stone breaker
Cinematographer: Sunil Kumar
Duration: 00:06:02; Aspect Ratio: 1.778:1; Hue: 46.768; Saturation: 0.052; Lightness: 0.396; Volume: 0.210; Words per Minute: 155.246
Summary: 'पैसा लेना है तो लो नहीं तो, मैं यहाँ से जा रहा हूँ, जो करना है वो कर लेना।' यह वाक्य आर.के.एम. पॉवर प्लांट के ''प्रोजेक्ट मैनेजर'' 'सेनी इंगड़े' का है, जो कंपनी की तरफ से गाँव वालों की निजी जमीन खरीदते वक्त 'चन्द्र प्रकाश बघेल' से कही थी। कंपनी का यही रवैया लगभग पूरे गाँव वालों के प्रति रहा है। बांधापाली के चंद्र प्रकाश बघेल मूलतः पत्थर तोड़ने वाले मजदूर रहे हैं। पूरा परिवार इसी जमीन पर पत्थर तोड़कर और उससे सिल-लोढ़ा बनाकर गुजारा करता था। कंपनी के प्रोजेक्ट मैनेजर ने जमीन के बदले जमीन देने का वायदा किया था, लेकिन गांववालों को 1 लाख 10 हजार प्रति एकड़ के भाव से पैसा देकर चलता कर दिया। वर्तमान में चन्द्र प्रकाश के पास पत्थर तोड़ने के औजारों के अलावा और कुछ नहीं है।

Uchpinda

आपका नाम?

मेरा नाम चन्द्र प्रसाद बघेल है.

आपका गाँव?

बांधापाली.

फैक्ट्री के आने से क्या प्रभाव पड़ा है?
हमारे गाँव में इसका काफी प्रभाव पड़ा है. पहले यहाँ लोग सिल-लोढ़ा तोड़कर अच्छे तरीके से अपना जीवन चलाते थे.

कंपनी ने लालच दिया की ‘जमीन हमें दो हम नौकरी देंगे’. मैंने अपनी 1 एकड़ 27 डेसीमल जमीन बेच दी. सेनी लिंगड़े (कंपनी की तरफ से जमीन की खरीददारी करने वाला) मेरी जमीन लेने के लिए घर पर पच्चीसों बार आए लेकिन मैंने जमीन बेचने से इनकार किया. तो बोले “जमीन मुझे दे दो मैं तुम्हें रोड पर जमीन दिलवाउंगा”.

मुझे चारों तरफ रोड में घुमाया. उसके पीछे-पीछे घूमा हूँ. वह बोला कि ‘जमीन रजिस्ट्री कर दो’ मैंने कर दिया. फिर एक महीना जमीन के लिए उसके पीछे घूमा हूँ, लेकिन मुझे जमीन नहीं मिला. बाद में बोला कि “जो करना है कर लो”, और जमीन देने के बजाए 1 लाख 10 हजार प्रति एकड़ के हिसाब से पैसा दे दिया. अब मेरे पास कोई जमीन नहीं है. मेरे परिवार में 6 लड़की 1 लड़का और हम पति-पत्नी हैं, जो मेहनत करके जीते-खाते थे. अपनी जमीन कहना चाहिए कि मुफ्त में दे दिया. अभी 1 लाख 10 हजार में कहीं भी पाँव रखने की जमीन नहीं मिल रही है. हम कैसे जिएंगे-खाएंगे. अब कंपनी के आने से पत्थर भी बंद हो गया, रोजी-रोटी भी बंद हो गया.

पहले क्या करते थे?

हम वहीं पत्थर तोड़ते थे, सिल-लोढ़ा बनाते थे. अभी मेरे घर पर रखा हुआ है, मैं दिखा सकता हूँ.

कहाँ तोड़ते थे?
जहां अभी प्लांट लगा है. पूरे हिस्से में बाउंड्रीवाल बना दिया गया है जिससे अब कहीं आने-जाने की जगह भी नहीं है.

यह सुनील कौन है?
यह सेनी लिंगड़े कंपनी का प्रोजेक्ट मैनेजर है. बह बोला कि ‘मैं कंपनी का प्रोजेक्ट मैनेजर हूँ.

दलाल, दलाल

जो भी हो, मुझे यही बोला कि ‘मैं प्रोजेक्ट मैनेजर हूँ’, कम से कम एक महीने से मेरे पीछे घूमा है. मैंने अपनी जमीन की रजिस्ट्री भी कर दिया था, पैसा भी नहीं लिया था, एक महीने के बाद पैसा मिला था. उसके कहा कि “लेना है तो लो नहीं तो मैं यहाँ से भाग रहा हूँ, जो करना है कर लेना”.
1 लाख 10 हजार इतने परिवार में तो तीन दिन में ही खत्म हो जाएगा, अब बताओ की हम क्या करें क्या न करें? एक बात और है, कंपनी के आने के बाद हमारे गाँव के जितने भी बहू-बेटियाँ है उनको आने-जाने यानी मैदान-पेशाब के लिए भी जगह नहीं बची है. उनके लिए बहुत पाबंदी हो गयी है. एकाध घर में ही लैट्रिन की सुविधा है और किसी घर में नहीं है. मेरे घर में सिल-लोढ़ा अभी भी पडा हुआ है. और उसको बनाने के सभी औजार घन, छेनी, हथौड़ा सभी कुछ रखा हुआ है.

ठगकर जमीन ले गया हम कहीं के नहीं रहे, जमीन के बदले नौकरी दिया है, 6 दिन का 175 रुपये के रेट पर पेमेंट कर रहा है. उतना तो इतने लोगों के परिवार में साबुन सर्फ़ पर खर्च हो जाता है हम क्या करेंगे? अब शादी करना, खाना पीना, कपड़ा लत्ता, पढ़ना-लिखाना.... अगर उतनी जमीन होती तो कम से कम बीस बोरा धान तो मिलता, जो छ: महीने का खर्चा होता और अपना गुजरा करने के लिए सब्जी तो उगा सकते थे. अगर खाने के लिए कुछ नहीं रहेगा तो पढ़ाएंगे-लिखाएंगे कैसे? देखिए, पढ़ने लायक सब बच्चे घर में खाली बैठे हैं. अब औकात होगी तब न पढाएंगे.

क्या चाहते हैं फिर आप?

क्या चाहूंगा? अब तो कुछ है नहीं अपने पास. पढ़ाना-लिखाना चाहता तो था, लेकिन जब रहेगा तब न पढ़ा-लिखा पाएंगे.

अब घर में इधर-उधर करते हैं. स्कूल में फीस के लिए पैसा नहीं है, कपडे के लिए नहीं है, हर चीज के लिए तो पैसा चाहिए.

इस कंपनी ने बहुत झूठ बोला, लालच दिया, आपको बता रहा हूँ, मुझे जमीन दिखाने के लिए चार-पांच जगह लेकर गए थे, फागुराम भद्री के में रोड में ले गए, उसके बाद देवरघाटा के में रोड में दिखाया, तो मैं बोला कि इसमें से कोई भी जमीन दे दो. वह तो कुछ तय नहीं किया, जमीन ले लिया, उसके बाद बोला कि “1 लाख 10 हजार के भाव में लेना है तो लो नहीं तो जाओ जो भी करना है कर लेना”. मैं इस सब के बारे में कागजात बनवाकर रखा हूँ.

मैं मंत्रालय जाने के बारे में सोचा था, अब अपने पास औकात ही नहीं है तो मंत्रालय में कौन सुनेगा?

ऐसे कितने गाँव के लोंगो के साथ हुआ है?

केकराभाठ, ढेकरापाली, बांधापाली उचपेंडा, कानाकोट, घिउरा, धोबनीपाली इस सब में तो ख़ास कर के हुआ है, मेरे साथ तो ऐसा हुआ बाकी से साथ हुआ है या नहीं मैं नहीं जानता.

आपके गाँव में कितने परिवारों के साथ ऐसा हुआ?
ऐसे तो सुनाई पड़ता है कि जिन लोगों ने जमीन बेची है सभी के साथ ऐसा हुआ कि जमीन 1 लाख 10 हजार प्रति एकड़ के भाव से ली गयी है.
क्या वे लोग भी यहीं पर पत्थर तोड़ते थे?
हां, सब यहीं पर पत्थर तोड़ते थे. सबके घर में अभी तक एक, एक, दो, दो, सिल-लोढ़ा और पत्थर पडा है. एक पत्थर 5 रूपए में बेचते थे. दिन भर में 20, 30, 40, 50 पत्थर तोड़ लेते थे. दिन भर में 200 से 250 तक कमा लेते थे जिससे परिवार आराम से चल जाता था. आज तो परिवार भी नहीं चल पा रहा है. 175 रुपया प्रति दिन के हिसाब से दे रहे हैं, 6 दिन का पेमेंट देते हैं जो की वहीं रास्ते में ही ख़त्म हो जाता है. हर दूकान में देना पड़ता है. किसी दूकान में 10 का, किसी में 50 का, किसी में 100 का. अब देख लीजिए मैं लेडीज चप्पल पहना हूँ, मेरे पास चप्पल नहीं है, और क्या बताएं? मैं जमीन बेचा हूँ और फटा-पुराना कपड़ा पहन रहा हूँ. पहनने के लिए अपने पास ठीक से कपड़ा नहीं है.
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