Sunil Kumar, June 2013
छ्त्तीसगढ़ में आने वाले पॉवर प्लांट्स के शोध पर आधारित डॉक्यूमेंट्री फिल्म ट्रीटमेंट/स्क्रिप्ट
सुनील कुमार, जून 2013
Introduction (translated):
This film treatment is based on research in mainly 2 districts of Chhattisgarh: Janjgir Champa and Korba, and 15-16 villages in these districts. From September 2012 to February 2013 I was travelling from village to village, mostly walking, talking to people, collecting documents and shooting video. Joining the video clips, I have published about 80 footage series in Pad.ma.
Why is this research presented in the form of a film script?
When I was first travelling to these parts of Chhatisgarh I was with some friends, among them an experienced filmmaker, and we had planned to make a film here. As a student of "film studies" I have wondered always what film studies and research can contribute to a film, before it is made. So you could think of the below as a proposal from a social researcher and film student (who has recently done a study of Iranian cinema) to documentary filmmakers, and to the filmmaking community in general.
Through the online archive, my work is available to all, and anyone can take it forward. I was shooting video myself for the first time, with a small camera. I have tried to create images of Janjgir Champa and Korba that have not been available in mainstream media.
यह ट्रीटमेंट मुख्यतः छत्तीसगढ़ के 2 जिले जांजगीर चम्पा और कोरबा के 15-16 गावों में किए गए शोध पर आधारित है। सितम्बर 2012 से फरवरी 2013 के दौरान मैं आधिकांश जगहों में एक गांव से दूसरे गांव पैदल घूमते हुए लोगों से बात कर रहा था और डॉक्यूमेंट और विडियो भी ले रहा था। इन सभी विडियो को जोड़कर 80 फुटेज सिरीज बने हैं जो Pad.ma पर उपलब्ध हैं।
यह शोध एक फिल्म स्क्रिप्ट के रूप में क्यों दी जा रही है?
जब मैं पहली बार इन इलाकों में गया था, मेरा कुछ दोस्तों के साथ मिलकर, जिनमें एक अनुभवी फिल्ममेकर भी शामिल थे, इन मुद्दों पर फिल्म बनाने का इरादा था। फिल्म अध्ययन का छात्र होने के नाते मुझे हमेशा से लगता रहा है कि इस अध्ययन का या शोध का फिल्म बनाने के पहले क्या योगदान हो सकता है? इसलिए नीचे दिए गए इस स्क्रिप्ट को एक सोशल रिसर्चर और फिल्म स्टूडेंट (जो अभी-अभी इरानी सिनेमा पर शोध कर चुका है) के द्वारा फिल्मकारों और फिल्म कम्युनिटी को दिया गया एक प्रस्ताव माना जा सकता है।
ऑनलाइन ऑर्काइव के जरिए मेरा यह काम और लोगों के लिए उपलब्ध है, इसको आगे बढ़ाने के लिए कोई भी अपना सकता है। मैं पहली बार खुद विडियो शूटिंग कर रहा था। मेरी कोशिश रही है कि जांजगीर चम्पा, कोरबा की वह तस्वीर आए जो दरअसल मुख्य मीडिया का हिस्सा नहीं रहा है।
- रिश्ता: नदी और उसके किनारे बसने वाले लोगों का
Location: Vill. Saradih, Janjgir Champa
यह साराडीह गांव है। जिसके मुख्य द्वार पर पीपल की छांव के नीचे एक मंदिर, आंगनबाड़ी, प्राईमरी स्कूल और चाय की दुकान है। एक महिला अपने बच्चों के साथ पुआल के ढेर को सहेज रही है। [1] दुनिया के तमाम बड़े शहरों की तरह यह छोटा सा गांव भी एक नदी के किनारे बसा है जिसका नाम महानदी है। साराडीह गांव के अधिकांश लोग इस नदी पर निर्भर हैं। जिसकी रेत पर सब्जियां, ककड़ी, खीरा आदि उगाकर हजारों किसानों का जीवन चलता है। खासतौर पर साराडीह गांव के छोटे और भूमिहीन किसान तो इसी पर जीवित हैं। [2] एक नदी से उसके किनारे बसने वाले लोगों का बेहद करीबी रिश्ता होता है जिसे किसी नाम में बांधना या पुकारना बेहद मुश्किल होता है.. रिश्तों के नाम पर बस कुछ दृश्य आंखों में अटक जाते हैं... एक बच्ची, जो उछलते-कूदते हुए नदी के झिलमिल पानी से गुजर रही है [3] या फिर नदी के पानी में इधर-उधर भागती छोटी-छोटी मछलियां, [4] नदी में बैलों को नहलाता हुआ एक ग्रामीण, कंधे पर शकरकंद के पौधों को लादे नदी पार करता किसान, बच्चों का समूह नदी की गर्म रेत पर गुजरता हुआ, एक बूढ़ा किसान नदी से नहाकर अपने भीगे कपड़ों को कंधे पर रखे हुए नदी को अपनी छोटी-सी बाल्टी में समेटे हुए गांव की ओर जाता हुआ, बहती हुई नदी, ठहरी गर्म रेत और सिर पर देगची लिए हुए अपने घर को जाती महिला, महानदी का विस्तार, नहाते हुए बच्चे, बूढ़े, अधेड़....। [5] लेकिन अब इस तस्वीर में एक और हिस्सा जुड़ने लगा है और वह है 11 कम्पनियों के द्वारा मिलकर बनाया जा रहा ‘बैराज’।
- महानदी: निजीकरण की ओर
Location: Vill. Mironi, Sakrali and Saradih, Janjgir Champa
साराडीह से लगभग 15 कि.मी. की दूरी पर मिरौनी के उपसरपंच एक सड़क दिखाते हुए बताते हैं कि बरसात में गांव के लोग यहीं सड़क पर नहाते हैं अब बैराज बनने के बाद तो पानी गांव में ही घुस जाएगा। यह मिरौनी बैराज के पाए हैं, मिरौनी के ग्रामीण बता रहे हैं कि यह वो जमीन है जो डूब में आने वाली है। [6]
कलाराम के अनुसार इस गांव की लगभग 100 एकड़ खेतीवाली जमीन डूब में जा रही है। गांववालों के काफी आंदोलन के बाद भी अभी तक मुवावजे की कोई बात नहीं चली है। [7] लेकिन साराडीह के लोगों की अगुवाई में चले आंदोलन ने मिरौनी बैराज की तुलना में साराडीह बैराज की गति धीमी कर दी है।
साराडीह के किसानों का भी यही हाल है उनकी 400 एकड़ के लगभग खेतीवाली जमीन डूब में जा रही है। [8] जबकि सरकारी डॉक्यूमेंट में डूब क्षेत्र शून्य बताया जा रहा है।
बीजों के इंतजार में जुते हुए खेत जिनमें नमीं अभी भी बाकी है। खेतों में अभी भी मूंग की फसल लगी हुई है, गहरे हरे रंगों वाले बैगन के पौधे में पीले फूलों का आना अभी बाकी है, जबकि टमाटर के पौधों में फूल आ चुके हैं। इन सबके बीच वह आदमी जिसकी कुदाल शकरकंद के पौधों को सहेज रही है, अनगिनत लकीरों वाला पसीने से नहाया हुआ उसका चेहरा घूम कर कैमरे को देखता है। कई तरह की आशंकाओं को लिए हुए पूछता है “इसमें पाईप निकालेंगे?” [9]
सकराली के भोगीलाल ‘साराडीह, सकराली और मिरौनी गांव के लोगों का जीवन इसी नदी के कछार में पलता है, जो लगभग एक कि.मी. चौड़ा है और कहीं-कहीं पर इससे भी ज्यादा है। इसकी लम्बाई 12 से 15 कि.मी. है। बरसात के समय लगभग दो महीनों के लिए यह जमीन पानी से भर जाती है, उस दौरान खेती संभव नहीं होती है। लेकिन बैराज बनने से अब यह स्थिति साल भर बनी रहेगी।‘ [10] भोगीलाल स्केच बनाकर यह बताते हैं कि “मांजरकूथ, खुरघट्टी, सिरियागढ़, बसंतपुर, नवापारा, उपनी, सकराली गांव की जमीन इसी टापू में है।” [11] टापू के दृश्य। [12]
‘सकराली और साराडीह गांव के लोग मिलकर बांध बनने से रोकने के लिए पिछले दो सालों से आंदोलन कर रहे हैं, कभी तहसीलदार तो कभी कलेक्टर की घेराबंदी करते हैं, लेकिन कहीं पर कोई सुनवाई नहीं हो रही है।‘ [13] लेकिन इस आंदोलन की एक बड़ी सफलता यह रही है कि साराडीह बैराज का काम काफी दिनों से रुका हुआ था। और इस आंदोलन के कारण ही बांध के बनने की गति काफी धीमी रही है।
साराडीह की तुलना में मिरौनी के बैराज की उंचाई काफी बढ़ चुकी है और उसके पाए नदी में काफी गहरे धंस चुके हैं। इसकी सुरक्षा के लिए गार्ड्स भी तैनात किए जा चुके हैं। जिन्हें सामान्य फोटो लेने पर भी गहरी आपत्ति है। [14] यहां पर मेरा कैमरा गार्ड के द्वारा बंद करा दिया जाता है।
कोयले से चलने वाले थर्मल पॉवर प्लांट को अधिक मात्रा में पानी की जरूरत होती है। जिसकी पूर्ति अब छत्तीसगढ़ की नदियां और उन पर आश्रित किसानों को करनी होगी। इस जिले से लगकर बहने वाली महानदी पर लगभग 90 कि.मी. के अंदर 5 बड़े बैराज बनाए जा रहे हैं। शिवरीनारायण, बसंतपुर, मिरौनी, कलमा और साराडीह। यह सभी बैराज 20-25 से अधिक पॉवर प्लांट कम्पनियों द्वारा मिलकर बनाए जा रहे हैं। जिनकी औसतन लागत लगभग 24,272.348 लाख रुपए है और इन बैराजों से प्रति वर्ष लगभग 1000 मिलियन घनमीटर पानी सप्लाई किया जाएगा। जिसकी कीमत सरकार ने, फाइनांशियल रिटर्न ब्योरे के अनुसार, महज 3 रुपए/घनमीटर लगाई है। यदि लीटर से मापा जाए तो यह 3 रुपए/1000ली. होता है। आश्चर्य की बात यह है कि यही पानी किसानों को सिंचाई के लिए उपलब्ध नहीं होगा। विकल्प के तौर पर सरकार के पास कछार पर आश्रित रहने वालों के लिए कोई योजना नहीं हैं। वह अभिशप्त हैं पलायन को, वह अभिशप्त हैं जम्मू कश्मीर के ईंट-भट्ठों पर काम करने को, वह अभिशप्त हैं बंधुआ मजदूर बनने को।
- यह तालाब किसके हैं?
Location: Vill Ghiwara, Janjgir Champa
दोपहर ढल चुकी है और सूरज घिवरा तालाब के पश्चिमी कोने के पेडों के ऊपर आकर टिक गया है। तालाब के किनारे पर लगे हुए बांस, आम, महुवा, पीपल के बड़े-बड़े पेड़ किसी दरवाजे के किनारों पर टांके हुए बुन्दे की तरह लग रहे हैं। पानी में पेड़ों की परछाईयां हिल रही हैं, दूसरे किनारे पर कोई हाथ मुंह धुल रहा है। घिवरा के यह दो तालाब कभी ना बंद होने वाले दरवाजे की तरह दिखते हैं जिनके बीच से एक रास्ता निकलता हुआ गांव की ओर चला जाता है। [15]
यदि कोई छत्तीगढ़ को जानता है तो यह भी जानता होगा कि एक छत्तीसगढ़ी के लिए तालाब के क्या मायने हैं। वह पीने के पानी से लेकर सिंचाई तक के लिए इसी पर निर्भर रहता है। सिर्फ इतना ही नहीं उनकी मूल्य-मान्यताओं में इसका अहम स्थान है। लेकिन इन तालाबों से यहां के लोगों की जुड़ी आस्था या जरूरत की परवाह आर.के.एम. पॉवर प्लांट को नहीं है।
घिवरा की सरपंच अस्मिन बाई “कलेक्टर के सामने कहा था कि तालाब बनवा कर देंगे, चरागाह देंगे लेकिन न तो चारागाह दिया और न ही तालाब, ऊपर से 20 एकड़ 19 डेसिमल हमारी जमीन थी जिसमें तालाब था, उसको भी बराबर कर दिया। उसमें गाय-भैस पानी पीते थे। उधर आदमी भी रहते थे, छह-सात घर अभी भी हैं। वह इन्दिरा आवास में मिला हुआ घर है। उन लोगों का खाना-पीना हराम हो गया है। जबकि वह घर इंदिरा आवास के तहत मिला हुआ था फिर भी तहसीलदार ने इन लोगों पर जंगल में घर बनाने के लिए मुकदमा करवा दिया।” [16]
शाम ढल रही है, और घिवरा तालाब के पानी का रंग धीरे-धीरे स्याह होता जा रहा है।
- और, यह तालाब किसके हैं?
Location: Vill. Churikhurd, Korba
छूरीखुर्द गांव के छोड़ते ही यह प्लांट दिखने लगता है। [17] इसी गांव से सटा हुआ एक सिंचाई का तालाब भी पड़ता है। [18] रास्ता तालाब पर बनाए गए बांध से होकर गुजरता है। छूरीखुर्द का यह तालाब सालों से इस गांव का रहा है। अब इस तालाब का पानी वन्दना विद्युत के लिए आरक्षित कर दिया गया है। गांववालों के द्वारा दाखिल PIL के कारण हाईकोर्ट ने पानी के औद्योगिक इस्तेमाल पर रोक लगा दी है, फैसला आना अभी बाकी है। सूरज पश्चिम की तरफ चल पड़ा था और प्लांट की चिमनी की परछाई तालाब के झिलमिलाते पानी पर पड़ने लगी है। शाम ढलने के साथ ही यह परछाई और ज्यादा गहरी और चौड़ी होती जाएगी।
- ग्राउंड वॉटर: किसानों की पहुंच से और दूर
Location: Vill. Badadhara, Janjgir Champa
गांव बाड़ादरहा में डी.बी. पॉवर का बन रहा वॉटर रिजर्वॉयर। खुदाई अभी भी चल रही है, जगह-जगह पानी जमा हो गया है, बांध की उंचाई लगभग गांव के घरों के दोगुना के लगभग है, जहां से घर कम पेड़ ज्यादा दिखाई देते हैं। बांध से होते हुए थोड़ा आगे चलने पर बांध के अंदर वाली ढलान पर एक बोर है, थोड़ा आगे बढ़ने पर एक और है। यह बोर सामान्यतः किसानों द्वारा सिंचाई के लिए इस्तेमाल किए जा रहे बोर से डेढ़-दो गुणा ज्यादा बड़े हैं। प्रकाश ने बताया कि ‘डी.बी. पॉवर इस रिजर्वॉयर के चारों तरफ 20-25 बोर कर रखे हैं, यह कम्पनी भू-जल का भी शोषण कर रही है।’ [19] [20]
- धान का कटोरा!
Location: Shakti Road, Janjgir Champa
शक्ति रोड, ट्रक को पीछे छोड़ती एक मोटरसाईकिल आगे निकल जाती है, कभी कैमरे की तरफ तो कभी सड़क की तरफ देखता ड्राईवर, ड्राईवर की पीछे के दृश्य आराम से पीछे की तरफ जाते हुए, ट्रक की दोनों ही खिड़कियों से दूर-दूर तक सिर्फ धान ही धान, पीले-पीले धान जिनकी बालियां नीचे को लटक रही हैं, कुछ खेतों में धान कटे हुए हैं तो कई खेतों में कट रहे हैं। [21] इस समय छत्तीसगढ़ में हर जगह खेतों में सिर्फ धान ही धान दिखते हैं। [22] जगह-जगह सरकारी मंडियां धान की खरीददारी कर रही होती हैं। ए.पी. जोसी के अनुसार ‘जांजगीर जिला सबसे बेहतर धान उत्पादक जिलों में से एक है।’ [23]
- भू-अर्जन अधिनियम: सिर्फ सरकार बदल गई है
Location: Vill. Badadhara, Janjgir Champa
शक्ति रोड से बड़ाधरा गाँव को जाती एक कच्ची सड़क, जिसके दोनों तरफ खेत हैं जिनमें धान के पौधे अभी खड़े हैं, धान की बालियों के पीछे डी.बी. पॉवर की चिमनी और कूलिंग टावर साफ़ दिखाई दे रहा है। [24]
बड़ाधरा के लोगों के अनुसार गाँव की लगभग 550 एकड़ सभी खेती वाली निजी जमीन डी.बी. पॉवर ने भू-अर्जन का डर दिखा कर अधिग्रहीत कर ली है।
डी.बी. पॉवर कर्मचारी मजदूर संघ के अध्यक्ष प्रकाश नारायण पटेल भू-अर्जन के बारे में कहते हैं कि लोगों को भू-अर्जन के अंतर्गत आने वाली धाराओं के बारे में जानकारी ही नहीं दी जाती है जिससे किसान को मजबूर होकर अपनी जमीन देना पड़ता है। जमीन का अधिग्रहण कई धाराओं के प्रकाशन के बाद होता है। लेकिन यह प्रकाशन स्थानीय स्तर पर करने के बजाय जानबूझकर अन्य शहरों में किया जाता है ताकि लोगों को पता न चल पाए। [25]
किसानों की आपत्तियां जिन धाराओं के अंतर्गत ली जा सकती हैं उनका प्रकाशन स्थानीय स्तर पर नहीं किया जाता बल्कि जिन धाराओं में किसानों को अधिग्रहीत जमीन की सूचना दी जाती हैं उनका प्रकाशन स्थानीय स्तर पर तो होता ही है साथ ही सूचना देने के और भी स्थानीय तरीकों को अपनाया जाता है।
ए.पी. जोसी ‘2006-7 के पहले निजी कम्पनियां किसानों की जमीन खुद खरीदती थीं अब सरकार सार्वजनिक हित के नाम किसानों की जमीन का जबरदस्ती अधिग्रहण कर निजी कंपनियों को दे रही है।’ [26]
कटे हुए खेतों में चरता जानवरों का झुण्ड, पेड़ के छाँव के नीचे बैठे चरवाहे, खेत से पुआल को समेटता एक किसान और सामने की कच्ची सड़क से गुजरता एक साईकिल सवार।
ए.पी. जोसी ‘भू-अर्जन का कानून अंग्रेजों द्वारा बनाया गया है जो भारतीयों की जमीन अधिग्रहीत करने के लिए था। अब भी किसानों की जमीन का अधिग्रहण के लिए उसी कानून का इस्तेमाल हो रहा है, फर्क सिर्फ इतना है कि गोरी सरकार की जगह काली सरकार आ गई है।’ [27]
- खेतिहर जमीन बनाम पॉवर प्लांट
Location: Vill. Ghiwara, Janjgir Champa
घिवरा के रास्ते के दोनों किनारों पर बने मिट्टी के घरों की दीवालों पर उपले सूख रहे हैं और दीवालों से लग कर बनाए गए बैठके, जिन पर बच्चे, बुजुर्ग की निगरानी में खेल रहे हैं। रास्ता संकरे गलियारे में बदल गया है। [28]
आदिवासी बाहुल्य यह गांव काफी घना बसा हुआ है। जिनकी आय का मुख्य जरिया यह खेती है। गांव के हर दरवाजे पर पुआल के ढेर लगे हुए हैं, जिनमें कुछ की ऊंचाई तो घर के बराबर है। पुआल से धान को अलग करता हुआ अधेड़ पुरुष और उसकी 8-9 साल की एक लड़की। लड़की बैलों की रस्सी पकड़ उसे पुआल पर गोल-गोल घुमा रही है, कमर में धोती जैसा कोई कपड़ा लपेटे हुए वह अधेड़ बैलों को हांक रहा है और बीच-बीच में हांकने वाली लकड़ी से ही पुआल को उछाल देता है। पुआल के पीले धूसर रंगों के बीच बैलों के सफेद रंग और अधेड़ किसान की गहरी संवलाई चमकती हुई पीठ, या पुआल के ढेर पर टिकाया हुआ बैलगाड़ी का एक पहिया जिसे शायद बनाने के लिए वहां रख छोड़ा है या वह एक पहिए पर टिकी बैलगाड़ी या वह घर जिसके बाहर धान का ढेर लगा है लेकिन घर में कोई नहीं है शायद वे अभी खेत से लौटे नहीं हैं......। यह सब मिलकर जीवन के रंगों में बदल जाते हैं। लेकिन अब इन रंगों में कुछ और भी रंग जुड़ने लगे हैं...।
गांव की सरपंच ‘अस्मिन बाई’ और उनके पति यानी सरपंचपति ‘दिलसाय’ व कुछ अन्य ग्रामीणों के अनुसार गांव की लगभग 40 एकड़ खेती वाली जमीन प्लांट में गई है। [29]
लगभग 80-85 घरों वाले इस गांव में अधिकांश किसान 1 एकड़ से लेकर 5 एकड़ की जमीन वाले हैं, जिनमें वह अपने परिवार को पालते हैं। एक परिवार में औसतन 5 से 6 लोग होंगे जो इसी जमीन पर निर्भर हैं। कई पीढ़ियों से यह लोग इस जमीन से जुड़े रहे हैं।
अस्मिन बाई (सरपंच) ने बताया कि कम्पनी और सरकार के लोगों ने मिलकर उनकी जमीन लूटी है, कम्पनी ने अपने गुंडों को विरोध करने वाले लोगों के घरों में घुसा दिया था। गांव की जनसुनवाई में, जिसमें एस.डी.एम. भी मौजूद थे, तमाम अधिकारियों के सामने गांव के लोगों ने कम्पनी को हटाने की बात कही बल्कि उस जनसुनवाई में सरकारी लोगों और गांववालों के बीच मार-पीट भी हुई, लेकिन उसके बाद भी सब कुछ पास हो गया और फैक्ट्री खुल गई। [30] कम्पनी ने अपने वायदे के खिलाफ जा कर अधिग्रहीत की गई जमीनों में गड्ढे कर दिए हैं ताकि लोग उसमें खेती न कर सकें। [31] घिवरा से लगभग 2 कि.मी. दूर गांव उचपेंडा के चंद्रप्रकाश “इस कंपनी ने बहुत झूठ बोला, लालच दिया, आपको बता रहा हूँ, मुझे जमीन दिखाने के लिए चार-पांच जगह लेकर गए थे, फागुराम भद्री रोड में ले गए, उसके बाद देवरघाटा रोड के आस-पास वाली जमीन दिखाया, तो मैं बोला कि इसमें से कोई भी जमीन दे दो। वह तो कुछ तय नहीं किया, जमीन ले लिया, उसके बाद बोला कि ‘1 लाख 10 हजार के भाव में लेना है तो लो नहीं तो जाओ, जो भी करना है कर लेना।’ मैं इस सब के बारे में कागजात बनवाकर रखा हूँ।” [32] ए.पी जोसी (पी.यू.सी.एल. छत्तीसगढ़ के कार्यकारिणी सदस्य) “सरकार का आंकडा मेरे पास है। सरकार ही लगभग 15 हजार एकड जमीन अधिग्रहण करके निजी कंपनियों को दे रही है। इसके साथ ही सरकारी जमीन भी दे रही है, जिसमें चारागाह, टॉयलेट आदि होते थे और गांव के लोग इसका उपयोग करते थे। बहुत सारे गांव के चारगाह तो खत्म हो गए। सरकार एक तरफ़ कहती है कि कृषि को बढावा देगें और दूसरी तरफ़ मवेशी को चरने तक की जमीन नहीं छोड रही है। आज भी छोटे-छोटे किसान तो ट्रैक्टर का प्रयोग नहीं करते है।” [33]
इन तीनों ही कम्पनियों (आर.के.एम., अथेना, डी.बी. पॉवर) ने निजी जमीन की खरीददारी 1,10,000 रुपया प्रति एकड़ से शुरू की थी बाद में सरकार से नए आदेश आने पर प्रति एकड़ 10 लाख रुपया किया गया। लेकिन इसका फायदा बड़े किसानों को ही मिला। वह किसान जिनके पास कुछ डेसीमल या कुछ एकड़ ही जमीन थी वे न तो अपनी जमीन बिकने से बचा पाए और न ही बढ़े हुए रेट से मुवावजा मिल पाया। उचपिंडा, बड़ादरहा, बांधापाली, घिउरा जैसे कई गांव के छोटे किसानों की यही स्थिति थी।
दूर-दूर तक दिख रहे इन खेतों में अब धान नहीं लगेंगे क्योंकि यह कम्पनी के द्वारा अधिग्रहीत कर इनमें गड्ढे किए जा चुके हैं। [34] दिलसाय और धान के खेतों के बीच से दिखता आर.के.एम. पॉवर प्लांट, दूर-दूर तक धान की पकी हुई बालियों के पीछे प्लांट की चिमनी और उसका ढांचा। अंधेरा बढ़ने को है और प्लांट की बत्तियां जल उठी हैं।
- “यह सब रोजी-माटी पॉवर प्लांट खा लिया है”
Location: Vill. Uchpinda and Bandhapali, Janjgir Champa
निर्मित हो रहा आर.के.एम. पॉवर प्लांट, [35] 1400 मेगावॉट का यह आर.के.एम. पॉवर प्लांट, गांव वालों के न चाहने के बावजूद अब गांव उचपेंडा की पहचान बना हुआ है। जबकि इसके पहले उसकी पहचान सिल-लोढ़ा के साथ जुड़ी हुई थी। जीतेंद्र “जिस जगह पर प्लांट खोला गया है उस जगह पर गांव के गरीब सिल-लोढ़ा बनाने का काम करते थे और बेचने के लिए दूर-दूर तक जाते थे। अब सरकार ने जबरदस्ती दबाव बनाकर वहां पर फैक्ट्री खोल दी है।” [36] सिर्फ उचपेंडा ही नहीं बल्कि उससे जुड़े अन्य चार-पांच गांव के लोग भी उसी जमीन में पत्थर तोड़कर सिल-लोढ़ा बनाकर अपना गुजारा करते थे जिसमें अभी यह प्लांट खड़ा है। गांव की लगभग 90 प्रतिशत आबादी इसी से अपना जीवन-यापन चलाती रही है। पीढ़ियों से यही उनके परिवार को पालने का साधन रहा है। हरिशंकर “यह सब रोजी-माटी पॉवर प्लांट खा लिया है, जब फैक्ट्री चालू हो रही थी तो कहा था कि पथ्थर को निकाल कर अलग कर देंगे, लेकिन कुछ नहीं सब बराबर कर दिया।” [37] सूचना के अधिकार से प्राप्त जानकारी के अनुसार 2006 से 31.03.2012 तक 41.990 हेक्टेयर सरकारी जमीन का अधिग्रहण किया गया है। जबकि नवम्बर 2012 तक आर.के.एम. पॉवर प्लांट 5 गांवों की जमीन अधिग्रहीत कर चुका है। जिनमें कुछ लोगों की आधी जमीन तो कुछ लोगों की पूरी जमीन गई है।
इन्हीं में से अब कुछ कहीं और पथ्थर खोजने में लगे हैं तो कुछ उन ठेकेदारों की राह देख रहे हैं जो उन्हें जम्मू, श्रीनगर में ईंट-भट्ठे पर काम दे सके। इन ‘लोकल’ मजदूरों को लगभग बंधुवा मजदूर बनने से बचाने के लिए के लिए सरकार के पास कोई योजना नहीं है। कम्पनियों ने अपने आर.आर. प्लान में लिख रखा है कि शिक्षा के हिसाब से रोजगार दिया जाएगा, लेकिन उसने यह स्पष्ट नहीं किया है कि किस तरह की शिक्षा प्राप्त लोगों को रोजगार दिया जाएगा!
- रोजगार की राजनीति
Location: Vill. Nimuhi and Singhitarai, Janjgir Champa
उचपेंडा से निमुही जाने का शॉटकट, एक पकडंडी जिसके दोनों तरफ पेड़ और ऊंची-ऊंची घास है, रास्ते के बाईं तरफ छोटा सा तालाब भी। यह रास्ता कटे हुए धान के खेतों से होकर गुजरता है। खेत से कटे हुए धान को समेटकर ट्रैक्टर में भरते हुए लोग, और इन खेतों के पीछे अथेना पॉवर प्लांट की चिमनी। [38]
निमुही गांव की लगभग 100 एकड़ से ज्यादा दो फसली जमीन और उसी से लगा हुआ गांव सिंघीतराई, जिसकी लगभग पूरी खेती वाली जमीन इस प्लांट में चली गई है। जमीन देने के बदले कम्पनी ने अपने आर.आर. प्लान में लोगों को रोजगार देने की बात कही है।
गेंदालाल का कहना है ‘कम्पनी हर जमीन देने वालों को सिर्फ हाजिरी देने के लिए बुलाती है। वह सुबह 8 बजे जाते हैं और 5 मिनट में हाजिरी लगाकर वापस चले आते हैं। निमुही से लगभग 100 लोग और सिंघीतराई के लगभग सभी लोग सिर्फ हाजिरी लगाने जाते हैं। कम्पनी ने अभी तक रोजगार को लेकर गांववालों के साथ किसी भी तरह का कोई एग्रीमेंट नहीं किया है और ना ही कोई काम दिया है, वह सिर्फ उन्हें हाजिरी देने के लिए बुलाती है। रविवार को छोड़कर 175 रुपए प्रति हाजिरी के हिसाब से 6 दिन का पेमेंट कर दिया जाता है।’ [39] पहले इस जमीन पर पूरे परिवार का जीवन चलता था अब हो सकता है कि पूरे परिवार से किसी एक व्यक्ति को ही हाजिरी पर रखा गया हो...! [40] यह प्रक्रिया पिछले 3 साल से चल रही है और कम्पनी के पूरी तरह बन जाने तक चलती रहेगी या हो सकता है कि पहले ही बंद कर दी जाए।
गेंदालाल ‘यह हाजिरी आगे नहीं चलेगी यह सिर्फ झगड़ा-झंझट रोकने के लिए लगाया है।’ [41]
गांव बड़ाधरा के 150 लोग और अन्य गांवों से लोगों को मिलाकर कुल 500 लोग डी.बी. पॉवर में हाजिरी देने जाते हैं। प्रकाश का कहना है ‘जब तक किसानों के पास जमीन है तब तक वह पैसा देती रहेगी जब भू-अर्जन लगाकर वह जमीन ले लेगी तब यह सब कुछ बंद हो जाएगा।’ [42] लक्ष्मी चौहान “यदि ग्रामीण इलाकों की शिक्षा का औसत देखें तो क्या है? यदि कोई बहुत पढ़ा-लिखा होगा तो ग्रेजुएट होगा। आप एक आर्ट ग्रेजुएट को पॉवर प्लांट में कहां देखते हैं? एक साइंस ग्रेजुएट को पॉवर प्लांट में टेक्निकल विंग्स में कहां देखते हैं? और आज की एडवांस तकनीक में कितने मैन पॉवर की जरूरत होती है? यदि 500 मे.वॉ. का पॉवर प्लांट है तो 500 लोगों की भी जरूरत नहीं होती है।” [43]
प्लांट की चिमनी और सुबह का सूरज उसके पीछे से निकलता हुआ, एक साईकिल सवार गांव की तरफ जाता हुआ, एक व्यक्ति दीवाल से लगकर बनाए गए बैठके पर जाने क्या एक टक देख रहा है, एक लड़का टायर को चक्के की तरह चलाते हुए चला जाता है और उसके पीछे चिमनी छूट जाती है। [44]
रोजगार को लेकर लोगों में भ्रम की स्थिति है। भूमिहीन, जो पहले कृषक मजदूर थे, अब पलायन को मजबूर हैं। इसे दूसरी भाषा में कहें तो शहरों में मजदूरी करने को स्वतंत्र हैं। इन प्लांटों में काम कर रहे सभी मजदूर (मुख्यतः कंट्रक्शन वर्क) उड़ीसा, झारखंड, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश के हैं। एक मजदूर के अनुसार कम्पनी का एक अघोषित नियम है कि स्थानीय मजदूरों को काम पर न रखा जाय, क्योंकि दुर्घटना के दौरान बाहरी मजदूरों को नियंत्रित करने में आसानी होती है। ऐसी स्थिति में इन ‘स्थानीय’ मजदूरों के लिए सरकार के पास कोई विकल्प नहीं है।
- तथाकथित विकास
Location: Vill. Odekera, Janjgir Champa
चाय की दुकान, पकौड़ियाँ तलने के लिए सामान तैयार करती हुई एक महिला, दूकान में एक पीसी रखा हुआ है, एक लड़का उसे चालू करने की कोशिश करते हुए, महिला भगोने में बेसन डालते हुए। अथेना पॉवर प्लांट के ठीक सामने रास्ते के बगल कटे हुए धान के खेत में एक महिला बड़ी उम्मीदों के साथ अपने दुकान को सजाते हुए। [45]
खेती छिन जाने के बाद रोजगार मिलने की उम्मीद से निराश हो चुके लोग अपने-अपने तरीकों से रोजगार की समस्या को हल करने की कोशिश कर रहे हैं। मुवावजे के पैसे का अलग-अलग लोगों ने अपने-अपने तरीके से उपयोग किया है।
विजयराम वारे अभी-अभी हाजिरी देकर लौटे हैं, लड़खड़ाते हुए वह बताते हैं कि उन्होंने कुछ पैसा दूसरी जगह जमीन लेने में खर्च किया है और कुछ बैंक में फिक्स किया है, एक मोटरसाईकिल ली है, अब सभी पैसा खत्म है। [46]
निमुही के गेंदालाल यह कहते हैं कि 'पैसा आने के बाद गाँव में दारू, गांजा आदि का प्रचलन बढ़ गया है।' [47]
यही स्थिति उन गावों की भी है जहां पर यह प्लांट आ रहे हैं। बाड़ाधरा गांव में कई दुकानदार ऐसे हैं जो बाहर से यहां पर बिजनेस करने आए हैं। उड़ीसा से आए वकीलुद्दीन इस गांव में मोबा
ल की दुकान चलाते हैं। वह बताते हैं कि जहां भी पॉवर प्लांट का कंट्रक्शन चलता है तो वहां वह बिजनेस करने जाते हैं उनके कई रिश्तेदार भी बगल के दूसरे प्लांट्स, अथेना या फिर रायगढ़ में बिजनेस करने गए हैं। मुस्कराते हुए बताते हैं कि ‘मुवावजे में मिले पैसे को लोगों ने गाड़ियों, घर बनाने आदि पर खर्च किया है।’ [48]
अथेना की बाउंड्रीवाल से लगकर छप्पर की कई दुकानें उग आई हैं। झीनी साड़ियों को तानकर बनाई गई दुकान की दीवार के अंदर अंधेरा होते ही चहल-पहल बढ़ जाती है। जहां पर दिये की मद्धम रोशनी में गांजा, भांग, शराब, मुर्गा सभी कुछ मिलता है। जिसका खरीददार ज्यादातर नौजवान होता है।
- गांव का ‘विकास’
Location: Vill. Badadhara, Nimuhi and Uchpinda, Janjgir Champa
उचपेंडा निवासी जीतेंद्र कुमार का कहना है कि ‘आर.के.एम. कम्पनी ने उद्योग पुनर्वास निति के तहत प्रभावित 5 गांवों में विकास के कार्य नहीं किए जा रहे हैं, जिसमें उन्हें बिजली, पानी, रोड आदि मूलभूत सुविधाओं को देना होता है। जीतेंद्र ने एक समिति का निर्माण भी किया लेकिन कम्पनी की इसमें कोई रुचि नहीं है।’ [49]
कम्पनियां अपने पुनर्वास निति में रोजगार देने से लेकर पीने के पानी की मूलभूत सुविधाएं देने की बात तो करती हैं लेकिन शायद ही किसी गांव में यह पूरा करती हैं।
गांव निमुही, अथेना द्वारा प्रभावित गांवों में से एक है। यहां प्लांट को आए हुए 5 साल से ज्यादा हो रहे हैं लेकिन गांव की सड़क में मात्र कुछ जगहों पर गिट्टियां डालकर छोड़ दी गई हैं, बाकी सड़क वैसे ही पड़ी है। [50] घरों में कम्पनी के आने से पहले ही बिजली है लेकिन गांव की सड़कों पर उजाले के लिए अभी भी कम्पनी की तरफ से कोई प्रयास नहीं किया गया है। पीने के पानी के लिए वह अपने स्रोतों पर या सरकारी हैंडपम्प पर निर्भर हैं। यही स्थिति घिवरा, उचपिंडा, बांधापाली, सिंघीतराई, ओड़ेकेरा, ढेकरापाली, केकराभाठ जैसे गांवों की है। दिलसाय ‘गाँव में स्कूल, पानी, गली-गली में पक्की सड़क, नाली देंगे, लोगों को ठग-ठगकर, फुसलाकर ले लिया और कुछ भी नहीं दिया। नंदकुमार आया था, कुछ नहीं किया, पैसा लेकर भाग गया।’ [51]
कुछ बकरियां नाले से पानी पीती हुईं, सामने डी.बी. पॉवर प्लांट, एक मजदूर गिट्टी तोड़ता हुआ और सामने डी.बी. पॉवर प्लांट। [52] बाईक से बड़ाधरा गांव पर एक सरसरी निगाह। [53] बच्चे मिलिट्री सलाम की मुद्रा में। [54]
डी.बी. पॉवर ने इस गांव में सी.एस.आर. के तहत कुछ निर्माण किए हैं। पीने के पानी के लिए कराया गया यह बोर अब बच्चों के मैदान जाने का काम करता है। [55] पिछले 3 सालों में फैक्ट्री ने लोहे और कंकरीट का जंगल तो खड़ा कर लिया है लेकिन उसी से लगे इस गांव की सड़क पर गिट्टी का एक टुकड़ा भी नहीं गिरा है। [56] फैक्ट्री अपने निर्माण के अंतिम चरण पर है, उससे थोड़ी ही दूर पर बना घर उसकी तुलना में बौना नजर आता है, उसके सामने कच्चे रास्ते पर कुछ मजदूर फैक्ट्री की तरफ जाते हुए। [57]
- पेड़ों का कटना और फैक्ट्रियों का उगना
Location: Nimuhi and Badadhara, Janjgir Champa
बड़ाधरा गाँव का उंचाई से लिया गया शॉट [58], घने पेड़ों के बीच से आता सूरज का प्रकाश, [59]
किसी भी गांव को घने पेड़ों से अलग करके देखना मुश्किल होता है, खासतौर पर छत्तीसगढ़ के गावों को। लेकिन आश्चर्य की बात है कि पेड़ काटने का सबसे ज्यादा आरोप इन्हीं गावों पर लगते रहे हैं। इस गांव में डी.बी. पॉवर को आए हुए तीन साल से ज्यादा हो गए हैं और इन तीन सालों में प्लांट ने गांव के लगभग हजार पेड़ों से ज्यादा की कटाई की है, जो अभी भी जारी है।
कटे हुए पेड़ों के शॉट। [60]
प्रकाश ने बताया कि ‘उनके गांव में बहुत सारे पेड़-पौधे थे, लेकिन कम्पनी ने 900 पेड़ों को काट दिया है, जिनमें बहुत सारे पुराने पेड़ थे, जिनकी तने की गोलाई 3 फुट से ज्यादा थी। रामपुर टोले में पश्चिम की तरफ के पेड़ों की कटाई अब चालू हो रही है।’ [61] [62]
फैक्ट्रियों के आने से बाकी जगहों पर भी यही स्थिति है। ओड़ेकेरा के लोगों का कहना है कि अथेना पॉवर प्लांट ने भी हजारों की संख्या में पेड़ों की कटाई की है। [63]
इन गांव के लोगों ने कभी यह कल्पना भी नहीं की होगी कि उनकी साईकिल, बैलगाड़ी चलने वाली छोटी-सी सड़कों पर धूल उड़ाते हुए भारी बुलडोजर, ट्रक या डम्फर चलेंगे! उन्होंने कभी नहीं सोचा था कि उनके चारागाह कूलिंग टॉवर और चिमनी में बदल जाएंगे, जिन पेड़ों की छांव में बैठ वह जानवरों को चराते थे या खेतों में काम के बाद सुस्ताते थे, अब वह छांव ही नहीं बचेंगे।
- स्कूल के आंगन में चिमनी
Location: Bandhapali, Nimuhi and Badadhara, Janjgir Champa
गांव उचपेंडा के प्राईमरी स्कूल में लंच का समय हो गया है, बच्चे लंच के लिए अपने-अपने घर जा रहे हैं, गांव बांधापाली का प्राईमरी व उच्च प्राईमरी स्कूल, स्कूल के पीछे आर.के.एम. पॉवर प्लांट की चिमनी व ढांचा। [64]
बांधापाली गांव का यह उच्च प्राईमरी स्कूल पहले चारों तरफ से खुला हुआ करता था। स्कूल के बच्चों के लिए जगह की कोई कमी नहीं थी। अब यह आर.के.एम. पॉवर प्लांट की जेलनुमा चहारदीवारी से चारों तरफ घिर चुका है। जिसके अंदर ठीक से प्रार्थना करने के लिए भी जगह नहीं बची है।
प्रकाश नारायण पटेल का कहना है कि ‘3 साल बाद यह गांव रहने लायक नहीं रह जाएगा।’ [65]
सार्थक नामक एन.जी.ओ. के सचिव लक्ष्मी चौहान का कहना है कि ‘इन प्लांट्स से निकलने वाली राख लोगों के स्वास्थ्य के लिए बहुत बड़ी समस्या है।’ [66]
डी.बी. पॉवर अपने आर.आर. प्लान में 10 कि.मी. के दायरे को प्रभावित क्षेत्र में मानता है। जबकि बड़ाधरा गांव के प्राईमरी स्कूल से उसकी चिमनी की दूरी लगभग 500 मीटर ही होगी, अथेना पॉवर प्लांट की चिमनी की दूरी निमुही गांव के प्राईमरी स्कूल से मात्र 300 से 400 मीटर के बीच होगी, और आर.के.एम. की चिमनी तो लगभग स्कूल के आंगन में ही खड़ी दिखती है।
बड़ाधरा का प्राईमरी स्कूल, [67] निमुही का उच्च प्राईमरी स्कूल, [68]
- राखड़ बांध: कभी न सुलझने वाली समस्या
Location: NTPC Ash Dyke, Korba
धनरास में स्थित एन.टी.पी.सी. का राखड़ बांध [69]
यह धनरास में हसदेव नदी के किनारे स्थित एन.टी.पी.सी. का राखड़ बांध है। कभी यहां पर झोरा गांव के लोगों के खेत हुआ करते थे और साथ ही उनके घर भी। अब यहां पर सिर्फ राख उड़ती रहती है।
विनोद कुमार “झोरा गांव दो बार विस्थापित हो चुका है। पहली बार बांगो बांध बनाने के समय और दूसरी बार एन.टी.पी.सी. के भू-अर्जन के समय।” [70] कोरबा के लक्ष्मी चौहान “हमारे यहां इस समय 28,020 मेगावॉट के पॉवर प्लांट चल रहे हैं जिसमें प्रतिदिन करीब 1,16,000 टन कोयले की खपत होती है। इस हिसाब से कोरबा में प्रतिदिन करीब-करीब 51,000 से 52,000 टन राख बनता है।” [71]
पानी में घुलती हुई राख के दृश्य [72] महानदी पर बनने वाले बैराजों से मिलने वाला पानी अब खेतों और फसलों की प्यास बुझाने के बजाए जलती हुई भट्ठियों को ठंढा करने में भाप बनकर उड़ जाएगा या फिर प्लांट की जलती हुई राख के साथ मिलाकर इसी तरह किसी डेम में फेंक दिया जाएगा।
धनरास गांव के इस राखड़ बांध में एन.टी.पी.सी. पॉवर प्लांट से राख को पानी में मिलाकर बड़ी-बड़ी पाईपों के जरिए बांध में फेंक दिया जाता है। पानी में मिली हुई राख सीमेंट के घोल की तरह दिखती है। जिसका इस्तेमाल न तो पीने के लिए किया जा सकता है और न ही सिंचाई के लिए। यह आस-पास के जल स्रोतों को भी प्रभावित करता है। इस बांध की उंचाई चार मंजिले मकान से भी ज्यादा है। जिसमें कई तरह के पौधे, झाड़ियां और पेड़ दफ्न हो चुके हैं और कुछ दफ्न होने की कगार पर हैं। पाईप से निकलती हुई राख। [73]
3 मई, 2006 को यह बांध एक बार टूट चुका है जिससे हजारों टन राखड़ खेतों व हसदेव नदी में बह गई थी और इसी के साथ लगा हुआ प्राईमरी स्कूल राख में तबाह हो जाने के कारण वहां से हटा दिया जा चुका है।
- 16.ढेंगुरनाला: शहर की गंदगी के साथ अब इसमें राख भी बहती है।
Location: Dhengur Nala, Korba
कोरबा शहर का ढेंगुर नाला, इसके ठीक सामने बाल्को पॉवर प्लांट है जिसकी एक चिमनी धुवां उगल रही है तो दूसरी उगलने के लिए तैयार की जा रही है। [74] ए.पी. जोसी “अभी कुछ ही दिन पहले यह चिमनी गिर गई थी जिसमें 5 से ज्यादा मजदूर दबकर मर चुके थे।” [75] कोरबा शहर का यह ढेंगुर नाला राख से पटा हुआ है। [76] इस नाले में यह राख बाल्को प्लांट से आती है। यह स्थिति तब पैदा होती है जब राखड़ बांध राख से पट जाते हैं। यह नाला आगे जा कर महानदी की मुख्य सहायक नदी हसदेव से मिल जाता है। फिलहाल साफ पानी दिख रहा है लेकिन नीचे राख जमीं हुई है। लक्ष्मी चौहान का कहना है कि आमतौर पर पानी पूरा सफेद होता है, वह इसे मेरी किस्मत अच्छी बता रहे हैं।
राख से पटा एक दिया। [77]
- हसदेव नदी: राखड़ बांध बनने से बस दो कदम दूर
Location: Darri, hasdevo River, Korba
चलती हुई कार से बैराज का शॉट। [78]" यह हसदेव बांगो बैराज है, जो 1990 में बनकर तैयार हुआ। इससे उजड़ने वाले गांवों की संख्या 59 है।
बैराज और फैले हुए पानी का शॉट, [79] इस बैराज का मुख्य उद्देश्य सिंचाई है लेकिन अब इसके उद्देश्यों में कोयले से चलने वाले पॉवर प्लांट्स को पानी देना भी शामिल हो गया है। जिसमें दो नाम प्रमुख हैं NTPC और CSEB। बैराज से आगे बढ़ने पर यह नदी घास के मैदान और नाले का मिलाजुला रूप हो जाती है। [80] यहां पर यह नदी लगभग 500 मीटर चौड़ी है और नदी के पूरे हिस्से में राख जमी है। जगह-जगह राख के ढूहे नजर आते हैं। कई ढूहों की जगह घासों ने ले ली है। मनीष एक जगह को दिखाते हुए “जो तंबू के पास पड़ा हुआ है, वह राख है। अभी गीला होने कारण इस तरह दिख रहा है। पहले हमने इसको हटाया फिर हमने रेत निकाल रखी है” [81] अन्य नदियों की तरह इस हसदेव नदी से भी रेत निकालने का काम किया जाता है। मनीष उन बालू ठेकेदारों में से एक हैं जो इस नदी से बालू निकालते हैं। मनीष “पिछले 4 साल से हम बालू निकाल रहे हैं। हमको नदी से सीधे रेत नहीं मिलती है, पहले कचरा (राख) हटाना पड़ता है फिर रेत मिलती है” [82] नदी में एक सूखी जगह मशीन से रेत खोद कर दिखाते हुए। [83]
राख की इस भयावहता को देखते हुए 1999 का एक नोटिफिकेशन है जिसे 2000 में पास किया गया। लक्ष्मी चौहान “इस नोटिफिकेशन में पॉवर कम्पनियों के लिए टाईम बाउंड कैलेंडर बनाया गया, जिसमें उन्हें एक निश्चित समय के अंदर राख का इस्तेमाल करना होता है। लेकिन यदि औसत निकाला जाए तो कोरबा में ही पूरी राख का 0.1 या 0.2 प्रतिशत ही इस्तेमाल हो पाएगा बाकी जगहों की तो बात ही छोड़ दी जाए। यह संभव ही नहीं है कि ईंट बनाकर, गड्डे भर कर या सीमेंट प्लांट में राखड़ मिलाकर उसका पूरा इस्तेमाल कर पाएं” [84] मनीष “हमने छत्तीसगढ़ प्रदूषण बोर्ड को कई बार लिखित शिकायत की। लेकिन इनकी स्थिति यह है कि इनके पास राख रखने की जगह नहीं बची है, हवा में उड़ाएं तो दिक्कत है, तो इनको सबसे सुविधाजनक यही लगता है कि बहते हुए पानी के साथ राख को भी बहा दिया जाए। लेकिन आगे जो बांध बने हैं उनमें यह जाकर स्टोर होती जाती है।” [85]
नदी के सभी हिस्से में राख भरी है, कहीं पर रेत के साथ मिली हुई तो कहीं सिर्फ राख। [86] [87]
मनीष के अनुसार “अंदाजन प्रतिदिन 10,000 टन राख नदी में छोड़ी जा रही है।” [88]
नदी के पानी का रंग काला हो चला है। [89]
- “जिंदगी भर तो यहां रहना नहीं है तो कितनी भी राखड़ खा लो”
Location: Vill. ChuriKhurd and NTPC Ash Dyke, Korba
एन.टी.पी.सी. का यह राखड़ बांध छूरीखुर्द के बगल में ही है। [90] छूरीखुर्द के मनहरन मिंजवार “हमारे बगल में ही राखड़ डैम है, एक दूसरा डैम अभी सामने आ रहा है। राखड़ यहां से उड़ कर सीधा कलेक्टर ऑफिस जाती है लेकिन किसी अधिकारी को पता नहीं है कि धूल कहां से आ रही है जबकि सभी जानते हैं, लेकिन कोई नहीं बोलता। पैसे के भंडार में सब अपनी थैली भरते हैं। अधिकारी सोचते हैं कि आज कोरबा में रहना है तो कल दंतेवाड़ा जाना है। सही बात है, जिंदगी भर तो यहां रहना नहीं है तो कितनी भी राखड़ खा लो।” [91] लक्ष्मी चौहान “आज स्थिति यह है कि एन.टी.पी.सी., बाल्को की सारी राख पूरे शहर में आती है। हवा का डायरेक्शन पूरे 9 महीने उत्तर से पूर्व-पश्चिम होता है जो हमारे लिए बहुत ही दिक्कत की बात है।” [92] बादलों की तरह उड़ती यह राख दसियों कि.मी. तक फैल जाती है। जिसका प्रभाव कई तरह से पड़ता है। मनहरन मिंजवार “जितने भी प्रकार के पौधे हैं, सेम, आलू, गोभी इन सभी में किसी भी प्रकार का फल नहीं लगता है। राखड़ डैम से राखड़ उड़ करके पौधों पर चिपक जाता है। सीता फल, मुनगा, सेमीनार इसमें किसी भी तरह के फल नहीं हैं। पहले तो बिना पानी डाले उसमें पूरा फल लगता था, हम पूरा नहीं खा पाते थे, दूसरों को भी देते थे। अभी यह 10 साल के अंदर की बात है, बहुत पुरानी बात नहीं है। 10 साल पहले बहुत फसल होती थी, आज रख-रखाव कर-कर के थक जाते हैं लेकिन कोई फसल नहीं लगता है। पहले 25 बोरा से ऊपर धान होता था, आज सरकारी खाद भी डालो फिर भी नहीं होता है। इस बार फसल में बाल आने के बाद कीड़ा लग गया। हर किसी के घर में पुआल का ढेर है पर फसल नहीं है। एक एकड़ पर 5 बोरा धान निकला है। पहले हम लोग एक फसल में जीते-खाते थे, अभी क्या है कि सिर्फ आधा फसल होता है। इस बार एक आम के पेड़ में फूल निकला है बाकी किसी में नहीं। यह कल्मी आम है, इसमें भी फूल नहीं निकला, खत्म है। यह मुनगा का पेड़ है, 5 साल से कोई फल नहीं निकला है, 2-3 फल लगे हैं जबकि बारहों महीने पैदा होने वाला फल है और 80 रुपए किलो बिकता है, यह सेमी का पेड़, बेचारा लगाने वाला आज तक नहीं खाया है। सब राखड़ से प्रदूषित हो गया है।” [93] लक्ष्मी चौहान “आप देखेंगे कि कोरबा के जितने भी पेड़ हैं उनके पत्तों पर राख की एक मोटी परत जमीं रहती है और जो सब्जी फल पैदा करते हैं उनमें भी यही रहता है और वह कहीं न कहीं इसमें इनवॉल्व हो जाता है। जिसका कुछ न कुछ हिस्सा हमारे शरीर में भी जाता है। जब आई.आई.टी. रुढ़की जैसे प्रतिष्ठित संस्थान यह कह रहे हैं कि इसमें रेडियो ऐक्टिव है। यह वैज्ञानिक तौर पर सिद्ध हो चुका है कि उड़ने वाली राख में रेडियो ऐक्टिव मेटल्स हैं, जो हमारे शरीर में भी जाते होंगे तो सोचिए कि यह कितना नुकसानदेह होते होंगे?” [94] “उष्ण कटिबंधीय वन अनुसंधान संस्थान, जबलपुर से दो वैज्ञानिक आए थे, जो फॉरेस्ट के अधिकारी थे, उन्होंने वन औषधि को लेकर कोरबा के फॉरेस्ट अधिकारियों की ट्रेनिंग ली थी। उस दौरान उपस्थित कोरबा के वन वनाधिकारियों ने बताया था कि जिस क्षेत्र में एक पेड़ से आंवले की उपज 60 किलो थी अब वह घट कर 6 किलो रह गई है, कहीं न कहीं यह प्रदूषण के कारण है जिससे वन की उत्पादन क्षमता प्रभावित हो रही है।” [95] कोरबा विश्व के प्रदूषणतम 5 शहरों में से एक है। यह क्षेत्र अब क्रिटिकल पॉल्यूटेड एरिया में आता है।
यह राख के बादल पिछले कई सालों से कोरबा की धरती और जंगलों पर बरस रहे हैं, आंखें बूढ़ी होती जा रही हैं लेकिन यह बादल छंटने के बजाय और घने ही होते जा रहे हैं। क्रिटिकल पॉल्यूटेड एरिया की लिस्ट में अब जांजगीर चम्पा का नाम भी जुड़ने जा रहा है।
- “Government is pro industrialist पक्की बात है।”
Location: Korba City, Korba
लक्ष्मी चौहान “तो सोचिए कोरबा में 6-7 पॉवर प्लांट के होने से यह स्थिति है तो उन जगहों का क्या होगा? उदाहरण के लिए जांजगीर चम्पा जहां पर बिना किसी अध्ययन के, बिना किसी प्लानिंग के बत्तीस-बत्तीस एमओयू साइन कर लिए, क्या प्लान है सरकार के पास राखड़ डंप करने का।” [96] जीतेंद्र “सरकार के आदमी आए और उन्होंने लोगों को डराया-धमकाया। कई बार जनता ने अपने हक़ की मांग की लेकिन सरकार ने दबाव डालकर फैक्ट्री खुलवा दी।” [97] लक्ष्मी चौहान “क्या है कि स्टेट मशीनरी खुद ही नियम तोड़ती है तो बाकी से क्या उम्मीद करेंगे?” [98] ए.पी. जोसी “Government is pro industrialist, पक्की बात है। कोई भी विरोध करेगा तो उनके ऊपर तुरंत कार्यवाही करके जेल भेज देगी” [99] लक्ष्मी चौहान “छत्तीसगढ़ धान का कटोरा कहलाता है जिसका आधार जांजगीर चम्पा की खेतिहर जमीन है। अब अब वहीं के डभरा ब्लॉक में 7 पॉवर प्लांट लगाए जा रहे हैं। आपने सोचा कि राखड़ को कहां डम्प किया जाएगा? अभी तो 100 एकड़ में प्लांट बना और उसमें आपने डाल दिया, आने वाले सालों में कहां डम्प होगा? हर साल उनको 100 एकड जमीन राख डम्प करने के लिए लगेगा। आने वाले समय में जैसे कोरबा की स्थिति है वैसे ही बुरी स्थिति जंजगीर चम्पा की भी होगी।” [100] लक्ष्मी चौहान “यह एक अभिशाप है, जिस क्षेत्र में भी पॉवर प्लांट लगेंगे, उस क्षेत्र के लिए उड़ने वाली राख अभिशाप बनेगा।” [101]
कोरबा में शाम का समय [102]" शाम का समय, कोरबा का आसमान चिमनियों से निकलते धुएं से और गाढ़ा हो चला है, कैमरा या सिर कहीं भी घुमाने पर चिमनियां और उनसे निकलता धुवां ही दिखता है। अगले कुछ सालों में जांजगीर चम्पा के आसमान में भी राख और धुंए के बादल नजर आने लगेंगे। धान के कटोरे से राख के कटोरे तक की यात्रा में बस कुछ साल ही लगेंगे......।